पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७७
देव-सुधा

दीजिए दरस देव, लीजिए सँयोगिनि कै, योगिनि है बैठी यै वियोगिनि को अँखियाँ ॥१०॥

कवि ने नायिका के विरह का रूपक योगियों की दशा से बाँधा है। गूदरी = पुराने वस्त्रों में चारो ओर से सीवन डालकर जो वस्त्र ओढ़ने के लायक बनाया जाता है । कथरी । कोये = आँखों के कोने । सेली = वह माला, जो योगी लोग धारण करते हैं ।

कुल की-सी करनी कुलीन की-सी कोमलता , मील की-मी संपति सुमील कुल-कामिनी ;

दान को-सो आदरु उदारताई सूर की-सी , गुनी की लुनाई गुनमंती गजगामिनी ।

ग्रीपम को सलिल, सिसिर को-सो घाम देव , हेत हसंती जलदागम की दामिनी;

पून्यो को-सा चंद्रमा, प्रभात का-सो सूरज , सरद को-सा बासरू, बसंत की-सी जामिनी।।१०४।।

इस छंद में उपमाओं की अच्छी बहार है ।

(१५)
शाब्दिक मामंजस्य

कानानि कोननि कूदि फिर करि सौतिन के उर खेत की खू दनि , देवजू दौरि मिले ठगि ज्यौं मृगजे न फंदे फँदवार के के फू दनिx;

  • बहेलिया, फंदा लगानेवाला ।

x फंदों से । जो मृग बहेलिए के फंदों मे नहीं फँसे थे, वे भी ठगे-से दौड़कर लटं से मिल गए। प्रयोजन यह कि लटों की सुदरता से अरसज्ञ भी मोहित हो गए।