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देव-सुधा

कहा है - "जहँ बिलोकि मृग-शावक नैनी, जनु तहँ बरसि कमल-सित-चैनी।"

यह भी कहा जा सकता है कि रास्तों में कमलमुखी सखियाँ भर गई, जिससे मानो रास्ते ही कमलमय हो गए ।

अंत रुकै नहिं अंतरु कै मिलि अंतर कै सु निरंतर धारै, ऊपर वाहि न ऊपर वा हित ऊर बाहेर की गति चारै ; बातन हारति बात न हारति हारति जीभ न बातन हारै$ , देव रँगो सुरत्या सुरत्यो मनु देवर की सुग्त्यो न बिमारै ॥१०८।।

परकीया नायिका है । उपपति से प्रेमाधिक्य का वर्णन है ।

  • ( उपपति से ) अंतर करक वह अलग नहीं रुकती है, और

मिलकर जब अंतर करती है ( जैसा कि उपपति से प्रेम करने में स्वाभाविक है, क्योंकि उपपति से मिलन थोड़ी देर ही को मौका निकाल-कर होता है ), तब ( स्मरण में) उसे निरंतर धारण करती है।

+ ऊपर ( दिखलाने में ) वाहि ( उपपति को ) नहीं ( चाहती ),वरन् ऊपर वा ( पति ) से हित है,और युक्ति-पूर्वक ऊपर बाहरवाली गति में ही चलती है ( दिखलाने को पति से ही प्रेम करती है)।

$उस ( उपपति की) ओर हारती है (मन विवश होकर भी उसकी ओर जाता है), किंतु बातों में उससे हारती नहीं है। (बातों में प्रेम प्रकट नहीं करती है, अर्थात विवश होकर कर्मों से तो उससे प्रेम प्रकट करना ही पड़ता है, किंतु बातों में नहीं करती है।) बातें करते-करते जिह्वा थक जाती है, किंतु बातें नहीं चुकतीं।

  • देव कहता है कि वह देवर की सूरा और सुरति दोनो में

रजित है, तथा उसका स्मरण भी मन से नहीं भुलाती।