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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/८५

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देव-सुधा

अंबकुल बकुल* कब मल्ली मालती मलैजना को मीजिकै गुलावन की गली है ;

को गनै अलप तरु जी सों, जो कलपतरू तामों विकलप क्यों अलप मतिअली है।

चित जाके चाय चढ़ि चंक चपायो कान, मोचि सुख सोच हैं सकुचि चुप चली है ;

कंचन बिचारे रुचि पंचन मैं पाई देव चंपावरनी के गरे परयो चंपकली कैप: ।।१०।।

बिकलप = विकल्प = विह्वल, उद्विग्न, व्याकुल, संशय-युक्त । सखी का कथन है कि हे भ्रमर ! तू अल्पमति होकर ऐसी पारि-

  • मौलसिरी, केसर ।
  • मलयज, चंदन ।
  • छोटा दरख्त या ख़राब दरख्त । उन छोटे पुष्प वृक्षों को कौन

गिन सकता है, जिनसे तू (अलि ) अनुकूल है।

$जिसके चित्त ने उत्साह धारण करके चंपे के फूल को कोने में चपा दिया (कांति-हीन कर दिया, अर्थात् उसके रंग के आगे चंपे का रंग फीका पड़ गया ), किंतु जो चंपे को कांति-हीन करने के कारण शोक एवं संकोच-पूर्ण होकर, सुख छोड़ चुपके से चल दी । प्रयोजन यह है कि अपनी कांति से चंपे को यति-हीन करने से उसे गर्व अथवा प्रसन्नता न हुई, वरन् उलटे खेद हुआ। नायिका को चंपे की पराजय से दुःख हुआ है।

  • उस चंपकवर्णवाली नायिका के गले में चंपकली के रूप

में पड़ने से सोने की चाह पंचों में हुई।