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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/९४

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देव-सुधा

पूरन प्रेम सुधा बसुधा बसुधारमई बसुधार सु रेखीक, जीवन या ब्रज जीवन की ब्रज जीवन जीवनमूरि बिसेखी। तू परमावधि रूप रमा परमानंद को परमानद पेखो , नेह-भरी नख ते सिख देव सुदेह धरे मसि-मूरति देखी।।११।।

रेखी = रेखा खींची हुई, गिनी हुई, गण्य । बसुधा = पृथ्वी । जीवन = पानी ( जीवनं भुवनं जलमित्यमरः)।

सरद के वारिद मैं इंदु सो लसत देव । सुंदर बदन चाँदनी सो चारु चीर है;

सोधो सुधा-बिंदु मकरंद-सी मुकुत-माल लपिटी मनोज$तरु-मंजरी सरीर है।

सील-भरो सलज सलोनी मृदु मुसुकानि राजै राजहंसगति गुनन गहीर है।

  • वसु (ज्योति की) धारा-युक्त रत्नों की धार सुंदर प्रकार

से गण्य हुई । प्रयोजन यह है कि नायिका ज्योति-पूर्ण रत्न-समूह-सी है।

+ तू वन के जीवधारियों की जीव है, अथच जल-रूपी ब्रज की जीवनमूरि ( जीवन की उत्पत्ति का हेतु) विशेष रूप से है।

+तू लक्ष्मी के सौंदर्य की अत पर सीमा है, अथच परमानंद को भी प्रमाण देने-(हद बाँधने ) वाली तुझे हमने देखा।

$चित्त प्रसन्न करनेवाली।