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काव्य-कला-कुशलता
छोर की-सी लहरि छहरि गई छिति माँह,
जामिनी की जोति भामिनी को मान रोखो है,
सुधा को सरोवर-सो अंबर, उदित ससि
मुदित मराल मनु परिबे को पैठो है।
इसी प्रकार मुख-चंद्र के सम्मुखीन करने में देवजी को चंद्रमा
का घोर पराभव समझ पड़ा है-उनका भय यहाँ तक बढ़ गया है
कि उनके विचार से यदि चंद्रमा मुख को देख लेगा, तो उज्ज्वलता
और संदरता में अपने को पराजित पाकर, मारे सोच के, साधारण
छत्ते के समान निष्प्रभ और निर्जीववत् मर्यादा छोड़कर गिर
पड़ेगा ; यथा-
यूँघट खुलत अबै उलट है जैहै "देव',
उद्धत मनोज जग जुद्ध जूटि परैगो ;
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तो चितै सकोचि, सोचि, मोचि मेड़, मूरछि के,
छोर ते छपाकर छता-सो छूटि परैगो । *
- पूरणमासी के शरद- चंद को
लखै सुधा-रस- मत्ता-सा ; मुख से नकाब को खोल दिया, जगमगै प्रताप चकत्ता-सा ।