पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१००

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१.६ देव और विहारी आरसी-से अंबर मै आमा-सी उज्यारी लागै, ___प्यारी राधिका को प्रतिबिंब-सा लगत चद । प्रष्मि-निशा में चाँदनी की अनुपम बहार एवं वृषभानु-नंदिनी के श्रृंगार-चमत्कार का आश्रय लेकर कवि का सरस उद्वार बड़ा ही मनोरम है। "स्फटिक-शिल्ला-निर्मित सौध, उसमें समुज्ज्वल फर्श, फर्श पर खड़ी तरुपियाँ, उनके अंगों की आभा और सबके बीच में श्रीराधिकाजी"-इधर धरा पर तो यह सब दृश्य है ; उधर अंबर में ज्योत्स्ना का समुज्ज्वल विस्तार, तारका-मंडली की झिल- मिलाहट और पूर्ण चंद्र-मंडल है। नीचे केवल राधिकाजी और उनकी सस्त्रियाँ दृष्टिगत होती हैं, तो ऊपर तारका-मंडली और चंद्र के सिवा और कुछ नहीं देख पड़ता है। अवनि से अंबर तक श्वेतता- ही-श्वेतता छाई है ! कवि के प्रतिभा-पूर्ण नेत्र यह सोंदर्य-सुखमा अनुभव करते हैं-देवजी का मन इस सादृश्यमय दृश्य को देखकर लोट-पोट हो जाता है। वे विमल-विमलकर इस सादृश्य का मान खेने लगते हैं। उनकी समुज्ज्वला उपमा प्रस्फुटित होती है। विशाल अंबर पारसी का रूप पाता है। उसमें नीचे के मनोरम दृश्य का प्रतिबिंब पड़ता है। यह तारका-मंडली और कुछ नहीं, राधिकाजी को घेरनेवाली तरुणियों का प्रतिबिंब है और स्वयं चंद्रदेव राधिकाजी के प्रतिबिंब हैं। यह भाव जमते ही ऊपर दिए हुए छंद के रूप में, पाठकों के आनंद-प्रदान के लिये, अवतीर्ण होता है । इस अनु- पम उपमा का देवजी ने जिस सुधराई के साथ प्रस्फुटन किया है, वह पाठक स्वयं देख लें। जिस प्रकार उपयुक्त छंद में देवजी ने अंबर को आरसी का से दिया है, उसी प्रकार उसे सुधा-सरोवर भी बनाया है और इस सुधा-सरोवर में मराल रूप से चंद्र तैरता हुआ दिखलाया गया है। देखिए-