काव्य-कला-कुशलता देखो हो, कौन-सी छैल छिपाई, तिरीछे हँसै वह पीछे तिहारे । प्रकाश-श्रृंगार का पूर्ण चमत्कार होने से चाहे आप इसे घृणित भले ही कह लें, पर कवि-कौशल की प्रशंसा आपको करनी ही पड़ेगी। द्वितीय पद में दृष्टांत और वचन-रचना होने के कारण समस्त छंद में पर्यायोक्ति अलंकार का उत्कर्ष है । साद-गुण स्पष्ट ही है । उपर्युक्त छंद में नायिका को सापराधी प्रमाणित करने के चिह्न प्राप्त थे, अतः उसने प्रहसन-कौशल से काम लेने का निश्चय किया था; परंतु निम्नलिखित छंद में उसको सापराधित्व का पूरा प्रमाण मिल गया है । तो भी, अपनी वस्तु का दूसरे के द्वारा इस प्रकार उपभोग होते देखकर भी, स्वार्थ-त्यागिनी पतिव्रता रमणी का स्वामी के प्रति कैसा हृदय-स्पर्शी, करुणा-पूर्ण, सुकुमार उद्गार है; देखिए- माथे महावर पायँ को देखि महा वर पाय सुढार दुरीये; ओठन पै ठन वै अँखियाँ, पिय के हिय पैठन पीक धुरीये । संग ही सग बसौ उनके, अँग-अगन "देव" तिहारे लुरीये; साथ मै राखिए नाथ, उन्हे, हम हाथ मे चाहती चारि चुरी ये। हे नाथ, हमें हाथ में चार चूड़ियों के अतिरिक्त और कुछ न चाहिए ; आप प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अपने साथ रखिए । आदर्श पतिव्रता स्वकीया को और क्या चाहिए ? पति का बाल बाँका न हो तथा इसी से रमणी के सौभाग्य-चिह्न बने रहें, हिंदू-ललना का अब भी यही आदर्श है । अंतिम पद का भाव कितना संयत और पवित्र है एवं भाषा भी कैसी अनुप्रास-पूर्ण और हृदय-द्राविनी है।
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