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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१०४

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देव और विहारी मानो सोने की अंगूठी में हीरे का नग जड़ दिया गया हो अथवा पवित्र मंदाकिनी में निर्दोष नंदिनी स्नान कर रही हो। (४) पून्यो प्रकास उकासि के सारदी, अासहू पास बसाय अमावस, दै गए चिंतन, सोच-विचार, सु लै गए नींद, छुधा, बल-बावस । हैं उत "देव" बसंत, सदा इत हेउत है हिय-कंप महा वस । लै सिसिरौ-निसि, दैदिन-ग्रीषम, आँखिन राखि गए ऋतु-पावसः । भावार्थ-"शारदी पूर्ण चंद्र की शुभ्र ज्योत्स्ना के स्थान पर चारों ओर अमावस्या का घोर अंधकार व्याप्त हो रहा है । सुखद निद्रा, स्वास्थ्य-सूचिका क्षुधा एवं यौवन-सुलभ बल के स्थान में संकल्प, विकल्प और चिंता रह गई है । हेमंत श्राया, पर प्रियतम परदेश में बसते हैं, वसंत भी वहीं है; यहाँ तो हृदय के घोर रूप से कंपायमान होने के कारण हेमंत ही है । संयोगियों की सुखमय शिशिर-निशा भी उन्हीं के साथ गई; यहाँ तो ग्रीष्म के विकलकारी दिन हैं या नेत्रों के अविरल अश्रु-प्रवाह से उनमें पावस-ऋतु देख पड़ती है।" विरहिणी की इस कातरोक्ति में कवि ने ऋतुओं को यथाक्रम ऐसा बिठलाया है कि कहते नहीं बनता। शरद् से प्रारंभ करके हेमंत का उल्लेख किया है । हेमंत का दो बेर कथन कर (हैं उत देव बसंत सदा इत हेउत है) बीच में वसंत का निर्देश मार्मिकता से खाली नहीं है । ऋतु-गणना के दो क्रम हैं-एक वैद्यक के अनुसार और दूसरा ज्योतिष के अनुसार । वैद्यक-क्रम के अनुसार पौष और माघ का नाम हेमंत है। वसंत-ऋतु तो हेमंत के बाद होती है, परंतु वसंत-पंचमी माघ शुक्का पंचमी को, ठीक हेमंत के बीच में, होती है। विरहिणी को वसंत-श्री दुःखद होगी, यही समझकर उपर्युक्त वियोग-वर्णन में, हेमंत के बीच वसंत का वसंत- पंचमी के प्रति लक्ष्यमात्र करके, शिशिर का उल्लेख किया गया