१३२ देव और विहारी कैसा प्रभाव होता है, इसका उद्घाटन देवजी ने अद्भुत रीति से किया है। वे कुलवधुओं के गुण-दोष वैसी ही व्यापकता से जानते थे, जैसे नाइन, तेलिन, तमोलिन, चमारिन आदि नीच श्रेणी की स्त्रियों के । देवजी का जगद्दर्शन अत्यंत विस्तृत था। वे लौकिक बातों के पूर्ण पंडित थे । देव-माया-प्रपंच नाटक इसका प्रमाण (६) देवजी विविध शास्त्रों के भी ज्ञाता जान पड़ते हैं । वात, कफ आदि प्रकृतियों के ज्ञाता, ज्वर, त्रिदोष, सन्निपात आदि रोग-सूचक शब्दों के प्रयोक्का, पारा तथा अन्य कई औषधियों के प्रशंसक और वैद्यक-विषय पर स्वतंत्र ग्रंथ लिखनेवाले देवजी निश्चय ही वैद्यक-शास्त्र से अपरिचित न थे। स्थल-स्थल पर योग, संक्रांति, ग्रहण एवं फलित ज्योतिष का उल्लेख करनेवाले, प्रकाश की ग्रह-परिवेष से उपमा देनेवाले देवजी ज्योतिष के ज्ञाता जान पड़ते हैं। संस्कृत-महाभारत एवं भागवत आदि महापुराणों से उनका परि- चय था, यह तो स्पष्ट ही है । देव-चरित्र लिखकर उन्होंने अपने इतिहासज्ञ होने का प्रमाण आप-ही-श्राप दे दिया है। घुणाक्षर एवं मुंगी-कीट आदि न्याय तथा अच्छी-अच्छी नीति-सूक्तियों के प्रवर्तक, देवजी नीतिज्ञ अवश्य ही थे । उन्होंने 'नीति-शतक' ग्रंथ की रचना भी की है । देवजी तत्वज्ञ वेदांती भी थे । वैराग्य-शतक इसका प्रमाण है। (७) देवजी रसिक और प्रेमी पुरुष थे । वे अभिमानी पुरुष थे या नहीं यह बात विवाद-ग्रस्त है। परंतु उनके उच्च आत्म- गौरव में किसी को संदेह नहीं । गुणग्राही चाहे हिंदू हो या मुसल- मान, वह समान रीति से उनका श्रादर-पात्र था । रस-विलास और कुशल-विलास को यदि वे हिंदू-नृपतियों के लिये बनाते हैं। तो भाव-विलास और सुख-सागर-तरंग मुसलमानों के लिये । पर
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