बहुदर्शिता १३१ बोलत बैरी बिहंगम “देव" सु बैरिन के घर संपति सॉची ; लोहू पियो जु वियोगिनी को, सु कियो मुख लाल पिसाचिनि प्राची । (४) देवजी संगीत-शास्त्र के पूर्ण प्राचार्य थे। 'राग-रत्नाकर' ग्रंथ इसका प्रतिभा-पूर्ण प्रमाण है । राग-उपराग, उनकी भार्याएँ, उनके गाने का समय, इन सबका विवेचन देवजी ने पूर्ण रीति से किया है। बाजों का हाल भी देवजी को विदित था। जिह्वा की उपमा उन्होंने तंत्री से दी है एवं मृदंग, मुहचंग, सितार आदि प्रायः सभी बाजों का उन्होंने उल्लेख किया है । फूटे ढोल की समता निस्सत्त्व जीव से कितनी समीचीन है- राजत राज-समाज मैं, बाजत, साजत है मुख-साज घनेरो; आपु गुनी, गज बाँधे गुनी के, सुबोल सुनाय कियो जग चरो। खाल को ख्याल मढ़यो बजे ढोल ज्यों,"देव"तूचेतत क्यों न सबेरो; आखिर राग न रग, न तो सुर फूटि गए फिर काठ को घेरो । राग-रत्नाकर से उदाहरण देना व्यर्थ होगा, प्रेमी पाठक उसे स्वयं पढ़ सकते हैं। (१) देवजी संसार-माया-रत पुरुषों की सारी क्रियाओं पर दृष्टि रखते थे। वे त्रिकुटी के अखाड़े में भृकुटी नटी को नाचते देखते थे। संग्राम में लोहू देखकर सूर का और भी क्रुद्ध होना उन्हें ज्ञात था । हिमाचल बयारि की शीतलता उनकी अनुभूत थी। कल की पुतलियों का नाचना उन्होंने देखा था। उलट-पलटकर तमोली पानों की रक्षा कैसे करता है, यह भी वे जानते थे। पतंग का उड़ना, फिरकी का फिरना, आतिशबाज़ी का छूटना, बरात का सत्कार एवं बाज़ार में व्यापार का प्रसार उन्हें अवगत था । अमीरी का उच्च-से-उच्च सामान उनका पहचाना था। मानुषी प्रकृति के तो वे पूरे पारखी थे। इस विषय में उनसे पारंगत कवि विरले हो पाए जाते हैं। नेत्रों पर रूप का, श्रवणों पर ध्वनि का एवं जिह्वा पर रस का
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