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देव और विहारी
ढंग से किया है। संस्कृत-पिंगलकारों के समान उन्होंने भी सूत्र-
रचनाएँ करके पिंगल को याद करने योग्य बना दिया है । जिस
प्रकार परकीया के प्रेम की घोर निंदा करके भी देवजी उसका
उत्तम वर्णन करने को बाध्य हुए हैं, ठीक उसी प्रकार चित्र-काव्य
को बुरा बताते हुए भी, प्राचार्य होने के कारण, उनको चित्र-काव्य
का वर्णन करना पड़ा है । सत्कवि जिस विषय को उठाता है,
उसका निर्वाह अंत तक उत्तमतापूर्वक करता है। उसी के अन-
सार देवजी ने अनिच्छित विषय होने पर भी चित्र-काव्य पर प्रशंस-
नीय परिश्रम किया है। अनेक प्रकार के प्रचलित कवि-संप्रदाय
से भी देवजी परिचित थे। कवियों ने प्रकृति में न घटनेवाली भी
ऐसी अनेक कियाँ-स्थिर कर ली हैं, जिनका वे काव्य में प्रयोग .
करते हैं। इन्हीं को कवि-संप्रदाय कहते हैं । स्वाति-बुंद के शुक्ति-
मुख में पतित होने से मोती हो जाना या तरुणी विशेष के पाद-
प्रहार से अशोक-वृक्ष का फूल उठना ऐसे ही कवि-संप्रदाय हैं।
इनका प्रयोग देवजी ने प्रचुर परिमाण में किया है। उदाहरण के
लिये निम्नलिखित छंद पढ़िए-
आए हौ भामिनि भेटि कुरौ-लगि, फूल धरे अनुकूल उदारै ;
केसरि जानि तुम्हें जु सुहागिनि आसव लै मुख सों मुख डारै ।
कीनी सनाथ हो नाथ, मयाकरिः मो बिन को, इतनी जु बिचारै ;
होय असाक सुखी तुम लौ अबला तन को अब लातन मार ।
व्यंग्य वचन से प्रौढ़ा अधीरा कहती है कि भामिनी ने तुमको
कुरवक( कुरौ)-वृक्ष जानकर भेंटा, इससे तुम फूल उठे हो ।
उसी प्रकार बकुल (केसर )-वृक्ष जानकर तुमको मद-पान करा
दिया है, जिससे तुम्हारा शोक जाता रहा है। अब तुम्हें अशोक-
वृक्ष के समान सुखी होना शेष है। तात्पर्य यह कि तुम पूर्ण रूप
से दंड्य हो । कुरवक, बकुल और अशोक के विषय में जो
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१२८
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