पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१२९

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बहुदर्शिता १३५ निम्नलिखित कवि-संप्रदाय प्रसिद्ध है, उसी का प्रयोग देवजी ने किया है- पादाहतः प्रमदया विकसत्यशोकः शोकं जहाति बकुलो मुखसीधुसिक्तः । आलिंगितः कुरवकः कुरुते विकास- मालोकितस्तिलक उत्कलिको विभाति । (8) देवजी प्रेमी परंतु उदार, रसिक परंतु शांत प्रकृति के पुरुष थे। ऊपर कहा जा चुका है कि उनमें लौकिक ज्ञान की मात्रा विशेष रूप से थी। उन्होंने जिस प्रकार के सुखमय जीवन पर चलने का उपदेश दिया है, उससे उनका प्रगाढ़ और परिपक्व अनुभव झलकता है। उनके व्यवहार्य जीवन-मार्ग' पर ध्यान देने से उनकी बहुदर्शिता का निष्कर्ष निकलता है। देखिए- जीवन को फल जग-जीवन को हितु करि जग में भलाई करि लेयगो सु लेयगो । और भी देखिए- पेयै असीस, लचैयै जो सांस ; लची रहियै, तब ऊँची कहैयै । जगत् के बाबत देवजी का कहना है- कबहू न जगत कहावत जगत है। सांसारिक जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिये निन्न-लिखित छंद कैसा अच्छा आदर्श है- गुरु-जन-जावन मिल्यो न, भयो दृढ़ दधि, मथ्यो न विवेक-रई “देव" जो वनायगो ; माखन-मुकुति कहाँ, छाँड्यो न मुगति जहाँ ? नेह बिनु सिगरो सवाद खेह नायगो । बिलखत बच्यो, मूल कच्यो, सच्यो लोभ-भाड़े, तच्यो क्रोध-आँच, पच्यो मदन, सिरायगो ;