१४२ देव और विहारी समरथु नाके बहुरूपिया लौं थान ही मै मोती नथुनी के बर बाने बदलतु है । दास (ड) “देव" तहॉ बेठियत, जहाँ बुद्धि बढ़े हो तो बैठी ही बिकल, कोई मोहिं मिलि बैठो जनि। देव बावरी हौ जु भई सजनी, तो हटौ-हम सो मति आइकै बोलो। हरिश्चंद्र इनके एवं देव के परवर्ती अन्य प्रसिद्ध कवियों के ऐसे कोड़ियों उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनमें स्पष्ट रीति से देव के भानों को अपनाया गया है। भारतेदु बाबू हरिश्चंद्र तो देवजी के इतने भक्त थे कि उन्होंने उनके भाव-हरण तथा अपने ग्रंथों में उनके छद भी अविकल उद्धृत किए हैं। इससे भी संतुष्ट न होकर उन्होने 'सुंदरी-सिंदूर'- नामक देवजी की कविताओं का एक संग्रह-ग्रंथ भी तैयार किया है। ब्रजभाषा के वर्तमान समय के प्रायः सभी मान्य कवि देवजी की कविता और उनकी प्रतिभा के प्रशंसक हैं । कविवर मुरारिदान ले अपने “जसवंत-जसोभूषण" ग्रंथ में इनके अनेक छंद उद्धृत शिवसिंह-सरोज के रचयिता, शिवसिंहजी की सम्मति देवजी के विषय में यह है- "ये महाराज अद्वितीय अपने समय के भाम मम्मट की समान भाषा-काव्य के प्राचार्य हो गए हैं । शब्दों में ऐसी सनाई कहाँ है, जिनमें इनकी प्रशंसा की जावै।" देवजी के विषय में एक प्राचीन छंद प्रसिद्ध है-
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