सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मर्मज्ञों के मत सूर सूर, तुलसी सुधाकर नक्षत्र केशौ, शेष कविराजन को जुगुनू गनायकै विहारी 'पृष्ठ कोऊ परिपूरन भगति दरसायो । अब काव्य-रीति मोसन मुनहु चित लायकै- देव नभ-मडल-समान है कबीन-मय, जामें भानु, सितभानु, तारागः श्रायकै उदै होत, अथवत, भ्रमत, पै चारो ओर जाको ओर-छोर नहिं परत लखायके । कहना न होगा कि हम देवजी को महाकवि और विहारी से बढ़- कर समझते हैं। २-विहारी संवत् १६६७ में, सरस्वती-पत्रिका में, 'सतसई-संहार'-शीर्षक एक लेख निकला था। उसके लेखक ने स्पष्ट शब्दों में कविवर विहारीलालजी को श्रृंगारी कवियों में सर्व-शिरोमणि रक्खा । संवत् १९७५ में सतसई-संजीवन-भाष्य का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। उसमें भी उसी पूर्व मत का प्रतिपादन किया और तुलना करके हिंदी के अन्य शृंगारी कवियों से विहारीलाल को श्रेष्ठ दिखलाया गया । __ इधर दो-एक आलोचकों ने देवजी को बहुत ही साधारण कवि प्रमाणित करने की चेष्टा की है। देव और विहारी की इस प्रबल प्रतिद्वंद्विता में अभी तक विहारी का पक्ष समर्थन करनेवालो की संख्या अधिक है। संजीवन-भाष्य के रचयिता लिखते हैं-"हिंदी-कवियों में श्रीयुत महाकवि विहारीलालजी का आसन सबसे ऊँचा है । शृंगार-रस- वर्णन, पद-विन्यास-चातुर्य, अर्थ-गांभीर्य, स्वभावोक्ति और स्वाभाविक बोलचाल आदि खास गुणों में वह अपनाजोड़ नहीं रखते।"(पृष्ठ२४५)