पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१४५

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प्रतिमा-परीक्षा [१] तन भूषन, अंजन दृगन, पगन महावर-रग; नहिं सोभा को साज यह, कहिले ही को अंग। अर्थ-शरीर में प्राभूषण, नेत्रों में अंजन एवं पैरों में महावर नायिका की शोभा नहीं बढ़ा रहे हैं । इन सबका प्रयोग तो कहने- भर को है । सहज सुंदरी को सौंदर्य-वर्धक इन कृत्रिम उपायों से क्या? ___ यदि यह उक्ति नायिका के प्रति नायक की हो, तो 'सहज सुंदरी' कहने के कारण नायक 'अनुकूल' ठहरता है । पर यदि यह उक्ति सखी के प्रति नायिका की हो, तो नायक को सहज सुंदरी प्रति होने के कारण नायिका का स्वाधीनत्व प्रकट होता है । स्वाभाविक सौंदर्य-वर्धन के लिये आभूषणों की अनावश्यकता दर्शित होने से रूप-गर्व एवं नायक की, भूषणों की उपेक्षापूर्वक, सौंदर्य-वश प्रीति होने से प्रेम-गर्व स्पष्ट हो रहा है। इससे नायिका क्रम से स्वाधीन- पतिका, रूप-गर्विता एवं प्रेम गर्विता प्रमाणित होती है। और, यदि उपर्युक्त कथन नायिका ने अपनी बहिरंगा सखी से उस समय कहा हो, जब कि वह वासकसजा के रूप में अपना शृंगार कर रही हो और सखी को यथार्थ बात बतलाना उसका अभीष्ट न रहा हो, तो उसकी 'विहार-इच्छा प्रकट होती है, जिससे शुद्ध-स्वभावा स्वकीया की शोभा झलक जाती है । इस प्रकार का कथन ध्वन्यात्मक है, जिसको गूढ़ व्यंग्य भी कहते हैं। दोहे में शृंगाररस स्पष्ट ही है । नायिका श्रालंबन और भूषणादि उद्दीपन-विभाव हैं । इन सबका धारण करना अनुभाव है। मद उत्कंठा, लज्जा, अवहित्यादि संचारी भाव हैं। अर्थातरों में रति स्थायी भी कई जगह है। ललित हाव का मनोरम विकास भी है।