देव और विहारी की तरलता, दधि की मधुरता और अम्लता, छाछ की निष्प्रभता एवं घृत की स्निग्धता सभी नायिका में उपस्थित हैं। इनमें से अधिकांश गुणों का आरोप लक्षणा से ही सिद्ध हुअा है, इस कारण 'सारोपा लक्षणा' का आभास स्पष्ट है । फिर भी वह 'गौणी' है, क्योंकि संपूर्ण छंद में जातित्व का प्राबल्य है । अतएव वाच्यार्थ ही प्रधान है । षट्रसों में मिठाई सबसे प्रधान है। नायिका के अंगों में भी कहीं ऐसी मधुराई है, जिसके सामने "समेत-सुधा बसुधा सब सीठी" है। वह मिठाई अधर-रस-पान के अतिरिक्त और कहाँ प्राप्त हो सकती है ? इस कारण छंद में 'व्यंजक पात्र' स्पष्ट है। शृंगाररस का चमत्कार प्रालंबन-विभाव-रूप नायिका और उसके अंग-सौंदर्य-उद्दीपन से परिपक्क हो रहा है। इसमें प्रकाश शृंगार है । नायिका परकीया है, परंतु मनमोहन को मीठी लगने के कारण वह स्वाधीन-पतिका है । दुग्ध का दधि-रूप में जिस प्रकार परिपाक हुआ है, उसी प्रकार नायिका में दधित्व-गुण होने से वह मंध्या' है। सुंदरी ग्रामीणा-वृंदावन-वासिनी-है। विलास-हाव से वह स्वतः विलसित हो रही है । जाति-दृष्टि से वह 'चित्रिणी' है। 'नैनन नेह चूवौं' चित्रिणी का बोध कराता है । 'समेत सुधा बसुधा सब सीठी' का अर्थ यह है कि सुधा के समेत वसुधा की सब मिठाई सीठी है । यहाँ 'उपादान लक्षणा' के प्रति हमारा लक्ष्य है। गणे में माधुर्य, समाधि एवं अर्थ-व्यक्त प्रधान हैं। वृत्ति कैशिकी है। शब्दालंकारों में वृत्यानुप्रास का चमत्कार और-ठौर पर दिख- बाई पड़ता है। अर्थालंकार अनेक हैं, परंतु पूर्ण अर्थ-समर्थन के कारण काव्य लिंग प्रधान है । 'माखन-सो मन', 'दूध-सो जोबन' में एकदेशीय लुप्तोपमा है, 'दधि ते अधिकै उर ईठी' में व्यति- रेक । 'जा छबि आगे छपाकर छाछ में चतुर्थ प्रतीप, 'समेत-सुधा
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