उपर्युक्त उदाहरण में सौहार्द-भक्ति प्रधान है । अब भक्ति-प्रधान
उदाहरण पढ़िए-
धाए फिरौ ब्रज मैं, बधाए नित नंदजू के,
गोपिन सधाए नचौ गोपन की भीर मैं ;
"देव' मति-मूढे तुम्हें ढूँ, कहाँ पावें ।
चढ़े पारथ के रथ, पैठे जमुना के नीर मैं ।
आँकुस लै दौरि हरनाकुस को फारयो उर;
साथी न पुकारयो हते हाँथी हिय तीर मैं ;
बिदुर की भाजी, बेर भीलनी के खाय, विप्र-
चाउर चबाय, दुरे द्रोपदी के चीर मै ।
इस प्रकार कार्पण्य, वात्सल्य, भक्ति एवं सौहार्द का संक्षिप्त
वर्णन करके देवजी ने सानुराग प्रेम का वर्णन विस्तारपूर्वक किया
है। विषय प्रेम को देवजी विष के समान मानते हैं। उनका स्पष्ट
कथन है-
विषयी जन .व्याकुल विषय देखें विषु न पियूष ;
सोठी मुख मीठी जिन्हैं, जूठी ओठ मयूष ।
इसी प्रकार परकीया के उपपति-संयोग में वे प्रेम का भुलावा-
मात्र मानते हैं । ऐसी पर-पुरुष-रत तरुणियों को संबोधन करके
देवजी कहते हैं-
पति को भूलै तरुन तिय, भूलै प्रेम-बिचार ;
ज्यों अलि को भूलै खरी फूले चपक-डार ।
विषय पर उनका सच्चा भाव निम्नलिखित दोहांश से स्पष्ट
प्रकट होता है-
___ आसी-विष, फाँसी विषम, विषय विष महाकूप ।
कुचाल की प्रीति के वे समर्थक न थे-"प्रेमहीन त्रिय वेश्या है
सिंगारामास" माननेवाले थे। उनका कहना था कि-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५३
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