देव और बिहारी
वात्सल्य-प्रेम में यशोदा और कृष्ण का प्रेम अनोखे ढंग से
वर्णित है । कंस के बुलाने पर गोप मथुरा को जा रहे हैं । कदाचित्"
कृष्णचंद्र भी बुलाए गए हैं। परंतु माता यशोदा अपने प्रिय पुत्र
को वहाँ किसी प्रकार जाने देना पसंद नहीं कर रही हैं । वे कहती
हैं-"ये तो हमारी ब्रज की भिक्षा हैं। इन्हे वहाँ कौन पहचानता
है ? ये राज-सभा के रहन-सहन को क्या जाने ? इन्हें मैं वहाँ नहीं
भेजेंगी।" स्वयं देवजी के शब्दों में-
बारे बड़े उमड़े सब जेबे को, हौं न तुम्हें पठवों, बलिहारी;
मेरे तो जीवन “देव" यही धनु, या ब्रज पाई मैं भीख तिहारी।
जानै न रीति अथाइन की, नित गाइन मैं बन-भूमि निहारी;
याहि कोऊ पहिचान कहा ? कछु जाने कहा मेरो कुंजबिहारी ?
कितना स्वाभाविक, सरस वर्णन है। जिस कुंजविहारी का
पशुओं का साथ रहता है, जिसकी विहारस्थली वनभूमि है, जिस-
को राज-समाज में कोई नहीं पहचानता, जो 'अथाइन' की रीति
नहीं जानता, वह कुछ भी तो नहीं बतला सकता । राज-सभा में
उसके जाने की आवश्यकता ही क्या ? अनिष्ट-भय से माता पुत्र
को जाने से कैसे स्वाभाविक ढंग से रोकती है ! गोपियों की सौहार्द-
भक्ति के उदाहरण भी देवजी ने परम मनोहर दिए हैं । यथा-
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गैयन-गोहन प्रेम-गुन के पोहन “देव,"
मोहन, अनूप रूप-रुचि के चाखन चोर;
दूध-चोर, दधि-चोर, अंबर-अवधि-चोर,
बितहित-चोर, चित-चोर, रे माखन-चोर ।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५२
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