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देव और विहारी
ध्रव-प्रहलाद-उर हुव अहलाद जासो,
प्रभुता त्रिलोक हूँ की तिल-सम तूली है।
बदम-से बेद-मतवारे मतवारे परे,
मोहै मुनि-देव "देव' शूली-उर शूली है;
प्यालो भरि दे री मेरी सुरति-कलारी, तेरी
प्रेम-मदिरा सों मोहि मेरी सुधि भूली है।
प्रेमी को प्रेम-मद-पान कराकर देवजी उसे प्रेम की सर्वोत्कृष्टता
का बोध कराते हैं। वैदिकों के वाद-विवाद, लोक-रीति माननेवालों
का लौकिक रीतियों पर न्योछावर होना, तापसों की पंचाग्नि साधना,
योगियों के योग-जीवन एवं तत्त्वज्ञों के ज्योति-ज्ञान के प्रति उपेक्षा
दर्शाते हुए एवं उपहास की परवा न करके कोई प्रेम-विह्वला नंद-
कुमार को कैसी मर्म स्पर्शिनी उनि सुनाती है-
जिन जान्यो बेद, तेतौ बादिकै बिदित होहु ;
जिन जान्यौ लोक, तेऊ लीक पै लरि मरो
जिन जान्यो तप, तीनौ तापनि तँ तपि-तपि,
पंचागिनि साधि ते समाधिन धरि मरो।
जिन जान्यो जोग, तेऊ जोगी जुग जुग जियो;
जिन जानी जोति, तेऊ जोति लै जरि मरो;
हौं तौ "देव” नंद के कुँवर, तेरी चेरी भई,
मेरो उपहास क्यों न कोटिन करि मरो ?
देवजी की राय में उत्तम शृंगार-रस की अाधार स्वकीया नायिका
है और उसी का प्रेम शख-सानुराग प्रेम है। स्वकीया में भी वे
मुग्धा में ही आदर्श-प्रेम पाते हैं, क्योंकि मध्या का प्रेम कलह और
प्रौढ़ा का गर्व से कलुषित हो जाता है। देवजी कहते हैं-
दंपति सुख-सपति सजत, तजत विषय विष-भूख ;
"देव सुकवि" जीवत सदा पीवत प्रेम-पियूख ।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५६
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