प्रेम १६१ अर्थात् विषयिनी विष-क्षुधा का निवारण करके प्रेम-पीयूष-पान के पश्चात् सुख-संपत्ति-संपन्न दंपति चिरजीवी होते हैं। सहज लाज-निधि, कुल-बधू, प्रेम-प्रनय-परबीन, नवयौवन भूषित, सदा सदय हृदय, पन-पीन । प्रणय-प्रवीणा, नवयौवन-भूषिता, दयाई-हृदया, सहज-लज्जावती कुल-वधू को ही देवजी यथार्थ प्रेमाधिकारिणी समझते हैं । कुल-वधू का पति ही परमेश्वर है- बिपति-हरन, सुख-संपति-करन, प्रान-पति परमेसुर सो साझो कहौ कौन सो ? उधर षट्पद-नायक का पद्मिनी नायिका पर कैसा सच्चा प्रेम है, वह पद्मिनी के सामने और सबको कैसा तुच्छ समझता है, यह बात भी देवजी ने अच्छे ढंग से प्रकट की है। देखिए- वारौ कोटि इंदु अरबिंद-रस-बिंद पर, मानै ना मलिंद-बिंद सम के सुधा-सरो ; मलै मल्लि, मालती, कदंब, कचनार, चंपा चापेडू न चाहै चित चरन टिकासरो । पदुमिनि, तुही षटपद को परम पद, "देव" अनुकूल्यो और फूल्यो तो कहा सरो; रस, रिस, रास, रोस, श्रासरो, सरन बिसे बीसो बिसबासरो कि राख्यो निसि बासरो । क्रोध आ जाने पर भी पति के प्रति किसी प्रकार की अनुचित बात का कहा जाना देवजी को स्वीकार नहीं है। ऐसा अवसर उपस्थित होने पर वे बड़े कौशल से बात निभा ले जाते हैं। खंडिता को रात्रि में अन्यत्र रमण करनेवाले पति-परमेश्वर के सुबह दर्शन होते हैं। खंडिता तो वह है ही, फिर भी देवजी का कथन-
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