देव और विहारी
है; परंतु परकीया-प्रेम की उन्होंने निंदा भी खूब ही की है और
स्वकीया का वर्णन उससे भी बढ़कर किया है-मुग्धा स्वकीया के
प्रेमानंद में देवजी मग्न दिखलाई पड़ते हैं। पर विहारीलाल ने पर-
कीया का वर्णन स्वकीया की अपेक्षा अधिक किया है और अच्छा
भी किया है । इस प्रकार के वर्णनों से कवि की साहित्य-मर्मज्ञता
एवं रचना-चातुरी झलकती है, परंतु कवि के चरित्र के विषय में
संदेह होता है। कहा जाता है, कवि के चरित्र का प्रतिबिंब उसकी
कविता पर अवश्य पड़ता है। यदि यह बात सत्य हो, तो सतसई.
कार के चरित्र का जो प्रतिबिंब उसकी कविता पर पड़ता है, उसके
लिये वह अभिनंदनीय किसी भी प्रकार नहीं है । इस कथन का यह
अभिप्राय कभी नहीं है कि विहारीलाल की काव्य-प्रतिभा में भी
किसी प्रकार की मलिनता दिखलाई पड़ती है।
देवजी ने इस मामले में विशेष सहनशीलता दिखलाई है।
उन्होंने तरुणियों के मनोविकारों का वर्णन ही अधिक किया है।
उनका चरित्र अपेक्षाकृत अच्छा प्रतिबिंबित हुआ है-वे विहारी-
लाल से अधिक चरित्रवान् समझ पड़ते हैं । ऊपर का प्रेम-प्रबंध
पढ़ने से पाठकों को हमारे कथन की सत्यता पर विश्वास होगा।
विहारीलाल की प्रेम-लीला की तो थाह ही नहीं मिलती। वहाँ तो
परथो जोर विपरीति रति, रुपो सुरत. रनधीर ;
करत कुलाहल किंकिनी, गयो मौन मंजीर ।
से वर्णन पढ़कर अवाक् रह जाना पड़ता है । कुरुचि और सुरुचि-
प्रवर्तक प्रेम, तू धन्य है !
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१६०
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