सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मन महाकवि देव ने मन को लक्ष्य करके बहुत कुछ कहा है । मानुषी प्रकृति के सच्चे पारखी देव ने, प्रतिभाशाली कवियों की तरह, मन को उलट-पलटकर भली भाँति पहचान लिया था। वे जिस ओर से मन पर दृष्टि-पात करते थे, उसी ओर से उसके जौहर खोल देते थे। वे मन-मणि के जौहरी थे। उन्होंने उसका यथार्थ मूल्य प्राँक लिया था। तभी तो वे कहते हैं- ऊधो पूरे पारख हो, परखे बनाय तुम पार ही पै बोरौ पैरवइया धार नौंड़ी को; गाँठि बाँध्यो हम हरि-हीरा मन-मानिक दै, तिन्हें तुम बनिज बतावत हो कौड़ी को। उद्धवजी गोपियों को ज्ञान का उपदेश देने गए थे। गोपियों ने उनको वहीं भली भाँति परख लिया। उद्धवजी जिसका मोल कौड़ी ठहराते थे, उसे गोपियों ने हीरा मानकर, माणिक्य देकर खरीदा था। माणिक्य-रूपी मन देकर हीरा-रूप हरि की खरीदारी कैसी अनोखी है! क्रय-विक्रय के संबंध में दलालों का होना अनिवार्य-सा है। दलाल लोग चादर डालकर हाथों-ही-हाथों जिस प्रकार सौदा कर लेते हैं, वह दृश्य देवजी की प्रतिभा से बच न सका । नंदलाल खरीदार थे और उन्होंने राधिकाजी को मोल भी ले लिया-वे उनकी हो गई: परंतु यह कार्य ऐसी आसानी से कैसे संपादित हुआ? बात यह थी कि राधिका- जी का मन धूर्त दलाल था और वे उसी के बहकावे में आकर बिक गई। इस अनेरे दलाल' की दुष्टता तो देखिए। देवजी कहते हैं-