मन
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यों ही मन मेरो मेरे काम को न रह्यो "देव,"
स्याम-रंग द्वै करि समान्यो स्याम-रंग में ।
मन-मंदिर को ढहाकर देवजी ने माया-मेहरी को निकाल भगाया
था, परंतु गार्हस्थ्य-प्रपंच-प्रिय देव दूलह और दुलहिन के विना कैसे
कल पाते ? सो उन्होंने नवीन विवाह का प्रबंध किया। इस बारे
मन दूलह और क्षमा दुलहिन बनी । क्षमाशील मन सांसारिक
जीवन के लिये किनना सुखद है, इसकी विस्तृत आलोचना अपेक्षित
नहीं है । देवजी का जगदर्शन कैसा अनूठा था, इसकी बानगी
लीजिए-
प्रौढ़ा जाने माया-महारानी की घटाई कानि,
जसकै चढ़ायो हौं कलस जिहि कुलही ।
उठि गई श्रासा, हरि लई हेरि हिंसा सखी,
कहाँ गई त्रिसना, जो सबसे अतुलही ?
सांति है सहेली, भाँति-भाँति के करावै सुख,
सेवा करै सुमति, मुविद्या, सखि, सुलही ;
सुति की सुता सु दैया दुलही मिलाय दई,
मेरे मन छैल को छिमा सु छैल दुलही।
शांति, सुमति, सुविद्या, श्रुति (धर्म) एवं क्षमा-संयुक्त मन
पाकर फिर और कौन सांसारिक सुख पाना शेष रह सकता है ?
देवजी मन-दूलह के जीवनानंद का सारा प्रबंध कर देते हैं। श्रृंगारी
कवि देव लोकोपयोगी जीवन का ऐसा विमल एवं पवित्र आदर्श
उपस्थित करते हुए भी यदि एकमात्र घृणा की दृष्टि से देखे जाय,
तो बात ही दूसरी है । पर विषयासक मन भी देवजी की दृष्टि के
परे न था-वे उसके भी सारे खेल देखा करते थे। वे देखते थे-
ऐसो मन मचला अचल अंग-अंग पर,
लालच के काज लोक-लाजहि ते इटि गयो।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१६५
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