१७४ देव और विहारी लट मैं लटकि, कटि-लोयन उलटि करि, त्रिबली पलटि कटि तटिन मैं कटि गयो। यही क्यों, चंचल मन की गति देखकर-उसे ऐसा विषयासक्त पाकर उन्हें दुःख होता था- हाय ! कहा कहाँ चंचल या मन की गति मैं ? मति मेरी भुलानी; हौं समुभाय कियो रसभोग, न तेऊ तऊ तिसना बिनसानी । दाडिम, दाख, रसाल सिता, मधु, ऊख पिए श्री पियूष-से पानी, पैन तऊ तरुनी तिव के अधरान की पीने की प्यास बुझानी। दुःख होते हुए भी-बटोही मन को इस प्रकार पथ-भ्रष्ट होते देखकर (मन तो बटोही ; हीन बाट क्यों कटोही परै ?)-नाभि- कूप में मन को बूड़ते (नाह को निहारि मन बूढ़े नाभिकूप मैं ) . एवं त्रिवली-तरंगिणी में डूब-डूबकर उछलते देखकर (यामैं बलबीर- मन बूड़ि-बूड़ि उछरत, बलि गई तेरी बलि त्रिबली-तरंगिनी) जब देवजी समझाने का उद्योग करते थे, तो उन्हें बड़ा ही मर्मस्पर्शी उत्तर मिलता था- सखिन बिसारि लाज काज डर डारि मिली, मोहिं मिल्यो लाल उँहकाए उँहकत नाहि । पात ऐसी पातरी बिचारी चंग लहकत, पाहन पवन लहकाए लहकत नाहिं । हिलि-मिलि फूलनि-फुलेल-बास फैली "देव," तेल की तिलाई महकाए महकत नाहिं ; जौहीं लौं न जाने, अनजाने रही तौलौं; अब मेरो मन माई, बहकाए बहकत नाहिं । मन-दुर्ग पर ऐसी संपूर्ण विजय देवजी को "किं-कर्तव्य-विमूद" कर देती थी। वे एक बार फिर कौतुक-पूर्ण नेत्रों से मन-नट के अपूर्व कर्तब-उत्कृष्ट खेल-देखने लगते थे-
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