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देव और विहारी
लट मैं लटकि, कटि-लोयन उलटि करि,
त्रिबली पलटि कटि तटिन मैं कटि गयो।
यही क्यों, चंचल मन की गति देखकर-उसे ऐसा विषयासक्त
पाकर उन्हें दुःख होता था-
हाय ! कहा कहाँ चंचल या मन की गति मैं ? मति मेरी भुलानी;
हौं समुभाय कियो रसभोग, न तेऊ तऊ तिसना बिनसानी ।
दाडिम, दाख, रसाल सिता, मधु, ऊख पिए श्री पियूष-से पानी,
पैन तऊ तरुनी तिव के अधरान की पीने की प्यास बुझानी।
दुःख होते हुए भी-बटोही मन को इस प्रकार पथ-भ्रष्ट होते
देखकर (मन तो बटोही ; हीन बाट क्यों कटोही परै ?)-नाभि-
कूप में मन को बूड़ते (नाह को निहारि मन बूढ़े नाभिकूप मैं ) .
एवं त्रिवली-तरंगिणी में डूब-डूबकर उछलते देखकर (यामैं बलबीर-
मन बूड़ि-बूड़ि उछरत, बलि गई तेरी बलि त्रिबली-तरंगिनी) जब
देवजी समझाने का उद्योग करते थे, तो उन्हें बड़ा ही मर्मस्पर्शी
उत्तर मिलता था-
सखिन बिसारि लाज काज डर डारि मिली,
मोहिं मिल्यो लाल उँहकाए उँहकत नाहि ।
पात ऐसी पातरी बिचारी चंग लहकत,
पाहन पवन लहकाए लहकत नाहिं ।
हिलि-मिलि फूलनि-फुलेल-बास फैली "देव,"
तेल की तिलाई महकाए महकत नाहिं ;
जौहीं लौं न जाने, अनजाने रही तौलौं; अब
मेरो मन माई, बहकाए बहकत नाहिं ।
मन-दुर्ग पर ऐसी संपूर्ण विजय देवजी को "किं-कर्तव्य-विमूद"
कर देती थी। वे एक बार फिर कौतुक-पूर्ण नेत्रों से मन-नट के
अपूर्व कर्तब-उत्कृष्ट खेल-देखने लगते थे-
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