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देव-विहारी तथा दास
स्याम पिछौरी चीर में पेखि स्याम-तन लागि
लगो महाउर आँगुरिन लगी महा उर आगि ।
__ दास
मोहूँ दीजै मोष, ज्यों अनेक अधमन दयो ।
ओ बाँधे ही तोष, तो बाँधो अपने गुनन ।
हिारी
ज्यों गुनहीं बकसीसकै ज्यो गुनही गुन हनि ,
तो निर्गुनहीं बाँधिए दीन-बंधु, जन दीन ।
दास
नितप्रति एकत ही रहत, बैस, बरन, मन एक ;
चहियत जुगल केसोर लखि लोचन जुगल अनेक।
विहारी
सोभा सौभा-सिधु को दै दृग लखत बनै न ;
अहह दई ! किन करि दई भय मन प्रापति नैन ।
दास
दास
सुघर सौते बस र ()
सुघर सौति बस पिय सुनत दुलहिनि दुगुन हुलास;
लखी सखी तन दीठि कर सगरब, सलज, सहास ।
विहारी
पिय आगम परदेस ते सौति सदन मैं जोय ;
हरष, गरब, अमरष भरी रस-रिस गई समोय ।
दास
चित-बित बचत न, हरत हठि लालन-हग बरजोर ;
सावधान के बटपरा, ये जागत के चौर ।
विहार