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देव और विहारी
बाहेर कढ़ि, कर जोरिकै रवि के करौ प्रनाम ;
मन-ईछित फल पायके तब जैबो निज धाम ।
दास
बोलि अचानक ही उठे बिनु पावस बन मोर;
जानित हौ नंदित करी यह दिसि नदकिसोर ।
विहारी
बिनहु सुमन-गन बाग मैं भर देखियत मॉर ;
'दास' आजु मनभावती सैल कियो यहि ओर ।
दास
सबै कहत कवि कमल से, मो मत नैन पखान ;
नतरक कत इन बिय लगत उपजत बिरह-कृसान !
विहारी
मेरी हियो पखान है, त्रिय-हग तीछन बान ;
फिरि-फिरि लागत ही रहै उठै बियोग-कृसान ।
दास
सुरंग महावर सौति-पग निरखि रही अनखाय;
पिय-अँगुरिन लाली लखे उठै खरी लगि लाया
विहारी
- इस भाव को सुकवि मतिराम ने भी इस प्रकार कौशल-पूर्वक
प्रकट किया है- चढ़ी अटारी बाम वह, कियो प्रनाम निखोट; तरनि-किरन ते हगन की कर-सरोज करि श्रोट। मतिराम