पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

देव और विहारी लेहु जू लाई हौ गेह तिहारे, परे जेहि नेह-सँदेस खरे मैं ; भेटौ भुजा भरि, मेटौ बिथान, समेटौ जू तो सब साध भरे मै। संभु-ज्यो आधे ही अंग लगाओ, बसाओ कि श्रीपति ज्यों हियरे मैं ; "दास” भरौ रसकेलि सकोल, सुश्रानंद-बेलि-सी मेलि गरे मैं। दास आपुस मैं रस मैं रहसँ, बहरे बनि राधिका-कुजबिहारी ; स्यामा सराहत स्याम की पागहि, स्याम सराहत स्यामा की सारी । एकाह आरसी देखि कहै तिय, नीके लगौ पियः प्यो कहै, प्यारी; "देव' सु बालम-बाल को बाद बिलोकि भई बलि हो, बलिहारी । पीतम-पाग सवारि सखी, सुघराई जनायो प्रिया अपनी है। प्यारी कपोल के चित्र बनावत, प्यारे विचित्रता चार सनी है। "दास" दुहूँ को दुहूँ को सराहिबा देखि लह्यो सुख, लूटि धनी है। वै कहै-भामते, केसे बने; वै कहैं-मनभामती, कैसी बनी है ! दास बैरागिनि किधौ अनुरागिनि, सोहागिनि तू, ___ "देव" बड़मागिनि लजाति औ लरति क्यों ? सोवति, जगति, अरसाति, हरषाति, अनखाति,बिलखपत दुख मानति, डरति क्यो ? चौंकति, चकति, उचकाते, औ बकात, बिथकति, औ थकति,ध्यान-धीरज धरति क्यो ? मोहति, मुरति, सतराति, इतराति, साह- __चरज सराहै, बाहचरज मरति क्यों ?