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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२०

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भूमिका चीजें सुनकर भी ब्रजभाषा में कही हुई चीज़ को सुनने के लिये खास उर्दू-प्रेमी कितना आग्रह करते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं । शृंगार-लोलुप श्रोता ब्रजभाषा की कविता इस कारण नहीं सुनते हैं कि वह अश्लील होने के कारण उनको आनंद देगी, बरन् इस कारण कि उसमें एक सहज मिठास है, जिसको वे उर्दू की, शृंगार से सराबोर, कविता में ढूँढ़ने पर भी नहीं पाते । एक उर्दू-कविता-प्रेमी महाशय से एक दिन हमसे बातचीत हो रही थी । ये महाशय हिंदी बिलकुल नहीं जानते हैं । जाति के ये भाटिए हैं। इनका मकान ख़ास दिल्ली में है, पर मथुरा में भाटियों का निवास होने से ये वहाँ भी जाया करते है । बातों-ही-बातों में हमने इनसे ब्रज की बोली के विषय में पूछा । इसका जो कुछ उत्तर इन्होंने दिया, वह हम ज्यों-का-त्यों यहाँ दिए देते हैं- "बिरज की बोली का मैं आपसे क्या हाल बतलाऊँ ? उसमें तो मुझे एक ऐसा रस मिलता है, जैसा और किसी भी ज़बान में मिलना मुशकिल है। मथुरा में तो खैर वह बात नहीं है । पर हाँ, दिहात में नंदगाँव, बरसाने वगैरह को जब हम लोग परकम्मा (परिक्रमा) में जाते हैं, तो वहाँ की लड़कियों की घंटों गुफ़्तगू ही सुना करते हैं । निहायत ही मीठी ज़बान है।" भारत में सर्वत्र व्रजभाषा में कविता हुई है। महाकवि जयदेवजी की प्रांजल भाषा का अनुकरण करनेवाले बंगाली भाइयों की भाषा भी खूब मधुर है। यद्यपि किसी-किसी लेखक ने बेहद संस्कृत-शब्द ढूंस-ठूसकर उसको कर्कश बना रक्खा है, तो भी ब्रजभाषा को छोड़कर उत्तरीय भारत की और कोई भाषा मधुरता में बँगला का सामना नहीं कर सकती। मातृभाषा के जैसे प्रेमी इस समय बंगाली हैं, वैसे भारत के अन्य कोई भी भाषाभाषी नहीं हैं। पर इन बंगालियों को भी ब्रज- भाषा की मधुरता माननी पड़ी है। एक बार एक बंगाली बाबू-