देव और विहारी
जिन्होंने ब्रजभाषा की कविता कभी नहीं सुनी थी, हाँ खड़ी बोली
की कविता से कुछ कुछ परिचित थे ब्रजभाषा की कविता सुनकर
चकित हो गए। उन्होंने हठात् यही कहा-"भला ऐसी भाषा में
आप लोगों ने कविता करना बंद क्यों कर दिया? यह भाषा तो
बड़ी ही मधुर है । आज कल समाचार-पत्रों में हम जिस भाषा में
कविता देखते हैं, वह तो ऐसी नहीं है।" बंगालियों के व्रजभाषा-
माधुर्य के कायल होने का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि बँगला-
साहित्य के मुकुट श्रीमान् रवींद्रनाथ ठाकुर महोदय ने इस बीसवीं
शताब्दी तक में ब्रजभाषा में कविता करना अनुचित नहीं समझा।
उन्होंने अनेक पद शुद्ध ब्रजभाषा में कहे हैं।
कुछ महानुभावों का कहना है कि ब्रजभाषा और खड़ी बोली की
नीव साथ-ही-साथ पड़ी थी और शुरू में भी खड़ी बोली जन-
साधारण की भाषा थी। इस बात को इसी तरह मान लेने से दो
मतलब की बातें सिद्ध हो जाती है--एक तो यह कि ब्रजभाषा
बोलचाल की भाषा होने के कारण कविता की भाषा नहीं बनाई
गई, बरन् अपने माधुर्य-गुण के कारण दूसरे खड़ी बोली का प्रचार
कविता में, बोलचाल की भापा होने पर भी, न हो सका । दूसरी
बात बहुत ही आश्चर्यजनक है । भाषा के स्वाभाविक नियमों की
दुहाई देनेवाले इसका कोइ यथार्थ कारण नहीं समझा पाते हैं।
पर हम तो डरते-डरते यही कहेंगे कि यह ब्रजभापा की प्रकृत
माधुरी का ही प्रभाव था कि वही कविता के योग्य समझी गई।
आज कल ब्रजभाषा में कविता होते न देखकर डॉक्टर ग्रियर्सन
हिदी में कविता का होना ही स्वीकार नहीं करते। पं० सुधाकर
'द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित होते हुए भी ब्रजभाषा-कविता में
संस्कृत-कविता से अधिक आनंद पाते थे । खड़ी बोली के प्राचार्य,
पं० श्रीधर पाठक भी ब्रजभापा की माधुरी मानते हैं-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२१
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