र देव और विहारी अपने गुरुजन और बहिरंगा सखी का संकोच हुआ। इनके सामने नायिका को इस प्रकार का स्पर्श अच्छा न लगा-वह रुष्ट हो गई। नायक ने यह बात भाँप ली और वह मुसकराकर साधारण रीति से उठकर चला गया। इधर इसे जो पीछे ख़याल आया, तो इसने सारी रात सिसक-सिसककर काटी और रोकर सबेरा पाया। इस दशा का वर्णन करते हुए एक सखी दूसरी सखी से कहती है-विना विरही के इस विरह-व्यथा का मर्म और कौन जान सकता है ? नायिका को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। वह हाय-हाय करके पछता रही है और उसके बड़े-बड़े नेत्रों में भर-भरकर आँसू टपक रहे हैं, जिससे ऐसा जान पड़ता है कि मानो यह गोरा-गोरा मुख अाज श्रोले के समान गायब हुश्रा जाता है।" कैसा स्वाभाविक वर्णन है ! मानवती नायिका का जीता-जागता चित्र देवजी के छंद में कैसे अनोखेपन के साथ निबद्ध है ! 'श्रोले की उपमा कैसी अनूठी है ! अश्रु-प्रवाह के साथ मुख-निष्प्रभता बढ़ती जाती है, यह भाव "गोरो-गोरो मुख अाज ओरो-सो बिलानो जात" में कैसे मार्मिक ढंग से प्रकट हो रहा है ! हमारे पूज्य पितृव्य स्वर्गवासी पं० युगलकिशोरजी मिश्र 'ब्रज- राज इस छंद को बहुत पसंद करते थे और हमने उनको अक्सर इसका पाठ करते सुना था । देवजी के अनेक छंदों के समान इस छंद के भी अनेकानेक गुण उन्होंने हम सबको बतलाए थे। मिश्र-बंधु-विनोद'-नामक ग्रंथ के पृष्ठ ३६-४१ पर इस छंद के प्रायः सभी, गुण विस्तारपूर्वक दिखलाए गए हैं । अतः यहाँ पर हम उनको फिर से दोहराना उचित नहीं समझते।
- मिश्व-बंधु-विनोद का यह अंश हमने इस प्रथ के अंत में, “परि-
शिष्ट"-शीर्षक देकर, उद्धृत कर दिया है । प्रिय पाठक पढ़ लेने की कृपा करें। संपादक