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विरह-वर्णन
जब वे दोनों ही एक-दूसरे से बढ़कर है, तो यदि एक ने कुछ भी
ज़्यादती कर दी, तो फिर कौन मना सकता है और कौन मान
सकता? बस मान ही का मत ठहर जाता है।
विहारीलाल ने मानी और मामिली में मान की नौबत कैसे आती
है और उस मान में स्थिरता भी ऐसी होती है, इसका सार्वभौम
वर्णन बड़ी ही चतुरता से किया है। दोहे में स्वाभाविकता कूट-कूट-
कर भरी है। देवजी मानिनी विशेष का रूठना दिखलाते और फिर
उस मान से जो कष्ट उसको मिला, उसका पूर्ण वर्णन करते हैं ।
जो बात विहारीलाल सार्वभौमिकता से कह गए, देवजी उसी को
व्यक्ति विशेष में स्थापित करके स्पष्ट कर देते हैं । विहारीलाल यदि
मान का लक्षण कहते हैं, तो देवजी उसका उदाहरण दे देते हैं।
दोनों की प्रतिभा प्रशंसनीय है-
सखी के सकोच, गुरु-सोच मृगलोचनि
रिसानी पिय सों, जु उन नेकु हँसि छुयो गातः
"देव" वै सभाय मुसुकाय उठि गए, यहि
सिसिकि-सिसिकि निसि खोई, रोय पायो प्रात ।
को जानै री बीर, बिनु बिरही बिरह-बिथा ?
___हाय-हाय करि पछिताय, न कछू सोहातः
बड़े-बड़े नैनन सों आँसू भरि-मरि ढरि,
___गोरो-गोरो मुख बाजु गोरो सो बिलानो जात ।
"मृगलोचनी गुरुजन और सखी के पास बैठी थी । प्रियतम ने
श्राकर जरा हँसकर हाथ छू दिया। इस पर लजाशीला नायिका को
- इस छंद का एक और पाठ बतलाया गया है । उसके लिये परिशिष्ट