२१८ देव और विहारी विरहिणी नायिका को शीतकर सुधाधर शीतल प्रतीत नही होता, परंतु गाँव-भर तो उसे शीत-रश्मि कह रहा है। ऐसी दशा में असमंजस में पड़ी नायिका कह रही है कि मैं ही बावली हो गई हूँ या सारा गाँव भ्रम में है। दोहे का तात्पर्य यही है। विरह-ताप-वश उद्विग्न चित्त के ऐसे संकल्प-विकल्प नितांत विद- ग्धता-पूर्ण है । लेकिन देवजी उसी विरहिणी को और भी अधिक उद्विग्न पाते हैं। उज्ज्वल घर उसे उजरे( शून्य )-से जान पड़ते हैं- मणियों के मंदिर गिरि-कंदरावत् हो रहे हैं । अगर और धूप की जो धूम-घटाएँ उठती हैं, उनका सुगंधमय धुवाँ व्याल-माला समझ पड़ता है। रंग-भूमि समर-स्थली-सी भासित होती है। चित्रित भित्तियों को देखने से भय लगता है । नवीन टेसू दहकते-से जान पड़ते हैं। घर के बाहर घोर डर लगता है । असन, बसन, भूषन की भी कोई इच्छा नहीं रह गई है । अच्छे-से-अच्छे मधुर पदार्थों को देखते ही वह 'छी-छी' कह उठती है । कोमल शय्या प्रस्तरखंड से भी कठोर हो गई है। कोमल बिछौनों पर जान पड़ता है कि बिच्छ-ही-बिच्छू भरे हैं । सुमन शूलवत् कष्टदायक हैं। चंदन की ओर चित्त ही नहीं जाता है । बस चित्त में वही तिरछी चितवन चभ रही है। देवजी ने उद्वेगोत्पादक बड़ा ही भीषण चित्र खींचा है, लेकिन विहारीलाल का चित्र भी कम उद्वेग-जनक नहीं विहारी के भाव को भी देव ने छोड़ा नहीं है- सैन सोई दिन, इंदु दिनेस, जुहाई हैं घाम घनो बिष-घाई ; फूलनि' सेज, सुगध दुकूलनि सूल उठे तनु, तूल ब्यो ताई। बाहेर, भीतर भ्वैहरेऊ न रह्यो परै “देव" सु पूँछन आई हौं ही भुलानी कि भूले सबै, कहैं ग्रीषम सो सरदागम माई !
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