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विरह-वर्णन
शरदागम विरहिणी को प्रचंड ग्रीष्म-सा समझ पड़ता है। घर
में रहते नहीं बनता है । इसी कारण वह जिज्ञासा करती है कि उसे
ही भ्रम हुश्रा है या सभी भूल कर रहे हैं।
"उन्माद-वियोगावस्था में अत्यंत संयोगोत्कंठित हो मोहपूर्वक
वृथा कहने, व्यापार करने को उन्माद कहते हैं।" ( रसवाटिका,
पृष्ठ ८५)
तजी संक, सकुचति न चित, बोलति बाक-कुबाक;
दिन-छनदा छाकी रहति, छुटति न छिन छनि-छाक ।
विहारी
आक-बाक बकति, बिथा मैं बूड़ि-बूड़ि जाति,
पी की सुधि आए जी की सुवि खोय-खोय देति;
बड़ी-बड़ी बार लगि बड़ी-बड़ी आँखिन ते
बड़े-बड़े अँसुवा हिये समोय मोय देति ।
कोह-मरी कुहकि, बिमोह-मरी मोहि-मोहि,
छोह-भरी छितिहि करोय रोय-रोय देति ;
बाल बिन बालम बिकल बैठी बार-बार
बपु मैं बिरह-बिष-बीज बोय-बोय देति ।
ना यह नंद को मंदिर है , बृषभान को भौन ; कहा जकती हो ?
हौं ही यहाँ तुमहीं कहि "देवजू" ; काहि धौ चूंघट कै तकती हो ?
भेटती मोहिं भट्ट, केहि कारन ? कौन की धौं छबि सौ छकती हो ?
कैसी भई ? सो कहौ किन कैसे हू ? कान्ह कहाँ हैं ? का बकती हौ ?
, देव
विहारी का 'बाक-कुबाक' देव के दूसरे छंद में मूर्तिमान् होकर
उपस्थित है। उन्मादिनी राधिका अपने को नंद मंदिर में कृष्ण के
साथ समझकर पगली जैसा व्यवहार कर रही है । सखी उसको
समझाने का उद्योग करती है। परंतु उसका कुछ परिणाम नहीं होता।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२११
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