२१६ विरह-वर्णन शरदागम विरहिणी को प्रचंड ग्रीष्म-सा समझ पड़ता है। घर में रहते नहीं बनता है । इसी कारण वह जिज्ञासा करती है कि उसे ही भ्रम हुश्रा है या सभी भूल कर रहे हैं। "उन्माद-वियोगावस्था में अत्यंत संयोगोत्कंठित हो मोहपूर्वक वृथा कहने, व्यापार करने को उन्माद कहते हैं।" ( रसवाटिका, पृष्ठ ८५) तजी संक, सकुचति न चित, बोलति बाक-कुबाक; दिन-छनदा छाकी रहति, छुटति न छिन छनि-छाक । विहारी आक-बाक बकति, बिथा मैं बूड़ि-बूड़ि जाति, पी की सुधि आए जी की सुवि खोय-खोय देति; बड़ी-बड़ी बार लगि बड़ी-बड़ी आँखिन ते बड़े-बड़े अँसुवा हिये समोय मोय देति । कोह-मरी कुहकि, बिमोह-मरी मोहि-मोहि, छोह-भरी छितिहि करोय रोय-रोय देति ; बाल बिन बालम बिकल बैठी बार-बार बपु मैं बिरह-बिष-बीज बोय-बोय देति । ना यह नंद को मंदिर है , बृषभान को भौन ; कहा जकती हो ? हौं ही यहाँ तुमहीं कहि "देवजू" ; काहि धौ चूंघट कै तकती हो ? भेटती मोहिं भट्ट, केहि कारन ? कौन की धौं छबि सौ छकती हो ? कैसी भई ? सो कहौ किन कैसे हू ? कान्ह कहाँ हैं ? का बकती हौ ? , देव विहारी का 'बाक-कुबाक' देव के दूसरे छंद में मूर्तिमान् होकर उपस्थित है। उन्मादिनी राधिका अपने को नंद मंदिर में कृष्ण के साथ समझकर पगली जैसा व्यवहार कर रही है । सखी उसको समझाने का उद्योग करती है। परंतु उसका कुछ परिणाम नहीं होता।
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