पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विरह-वर्णन २२१ "देवजू" श्राजु मिलाप की औधि, सो बीतत देखि बिसेखि बिसूरी; हाथ उठायो उड़ायबे को, उड़ि काग-गरे परी चारिक चूरी। देवजी के व्याधि-दशा-योतक एक और छंद के उद्धृत करने का लोभ हम संवरण नहीं कर सकते- फूल-से फैलि परै सब अंग, दुकूलन मैं दुति दौरि दुरी है। आँसुन के जल-पूर मैं पैरति, सॉसन सों सनि लाज लुरी है। "देवजू" देखिए, दौरि दसा ब्रज-पौरि बिथा की कथा बिथुरी है । हेम की बलि भई हिम-रासि, धरीक मैं घाम सों जाति धुरी है। अंतिम पद कितना मर्म-स्पर्शी, वेदना-पराकाष्ठा-दर्शी और विदग्धता-पूर्ण है ! "कर के मीड़े कुसुम लौं" बड़ा ही अच्छा भाव है, पर "हेम की बेलि भई हिम-रासि, घरीक मैं घाम सों जाति घुरी है" और भी अच्छा है। कांचन-लता निपतित होकर हिम- राशि हो गई । कैसा अद्भुत व्यापार है ! विरह-जन्य विवर्णता से नाटिका-स्पंदनावरोध के समय शरीर की शीतलता का इंगितमात्र कैसा विदग्धता-पूर्ण निर्देश है । हिम-राशि का धूप में घुलना कितना स्वाभाविक है ! विरह-ताप से मरणशाय नायिका का घुल-घुलकर जीवन देना भी कैसा समता-पूर्ण है ! पहले के तीनों पद भी वैसे ही प्रतिभा-पूर्ण हैं, पर पुस्तक-कलेवर-वृद्धि उनकी व्याख्या करने से हमें विरत रखती है । छंद का प्रत्येक पद और शब्द चमत्कार- "जड़ता-वियोग-दुःख से शरीर के चित्रवत् अचल हो जाने को जड़ता कहते हैं।" ( रसवाटिका, पृष्ठ ८६) चकी-जकी-सी है रही, बूझे बोलति नीठि; कहूँ डीठे लागी, लगी के काहू की डीठि। विहारी