विरह-वर्णन
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"देवजू" श्राजु मिलाप की औधि, सो बीतत देखि बिसेखि बिसूरी;
हाथ उठायो उड़ायबे को, उड़ि काग-गरे परी चारिक चूरी।
देवजी के व्याधि-दशा-योतक एक और छंद के उद्धृत करने का
लोभ हम संवरण नहीं कर सकते-
फूल-से फैलि परै सब अंग, दुकूलन मैं दुति दौरि दुरी है।
आँसुन के जल-पूर मैं पैरति, सॉसन सों सनि लाज लुरी है।
"देवजू" देखिए, दौरि दसा ब्रज-पौरि बिथा की कथा बिथुरी है ।
हेम की बलि भई हिम-रासि, धरीक मैं घाम सों जाति धुरी है।
अंतिम पद कितना मर्म-स्पर्शी, वेदना-पराकाष्ठा-दर्शी और
विदग्धता-पूर्ण है ! "कर के मीड़े कुसुम लौं" बड़ा ही अच्छा भाव
है, पर "हेम की बेलि भई हिम-रासि, घरीक मैं घाम सों जाति
घुरी है" और भी अच्छा है। कांचन-लता निपतित होकर हिम-
राशि हो गई । कैसा अद्भुत व्यापार है ! विरह-जन्य विवर्णता से
नाटिका-स्पंदनावरोध के समय शरीर की शीतलता का इंगितमात्र
कैसा विदग्धता-पूर्ण निर्देश है । हिम-राशि का धूप में घुलना कितना
स्वाभाविक है ! विरह-ताप से मरणशाय नायिका का घुल-घुलकर
जीवन देना भी कैसा समता-पूर्ण है ! पहले के तीनों पद भी वैसे
ही प्रतिभा-पूर्ण हैं, पर पुस्तक-कलेवर-वृद्धि उनकी व्याख्या करने से
हमें विरत रखती है । छंद का प्रत्येक पद और शब्द चमत्कार-
"जड़ता-वियोग-दुःख से शरीर के चित्रवत् अचल हो जाने
को जड़ता कहते हैं।" ( रसवाटिका, पृष्ठ ८६)
चकी-जकी-सी है रही, बूझे बोलति नीठि;
कहूँ डीठे लागी, लगी के काहू की डीठि।
विहारी
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२१३
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