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देव और विहारी
मंजुल मंजरी पजरी-सी है, मनोज के ओज सम्हारत चीर न ;
मुंख न प्यास, न नींद परै, परी प्रेम-अजीरन के जुर जीरन ।
"देव" घरी पल जाति धुरी अँसुवान के नीर, उसास-समीरन ;
अाहन-जाति अहीर अहे, तुम्हें कान्ह, कहा कहौं काहु कि पीरन ।
देव
मूर्छा, मरण, अभिलाष एवं प्रलाप-दशाओं के प्रत्युत्कृष्ट उदाहरण
होते हुए भी स्थल-संकोच से उनका वर्णन अब यहाँ नहीं किया जायगा।
५-विरह-निवेदन
बाल-बेलि सूखी सुखद यह रूखी रुख-घाम;
फेरि डहडही कीजिए सरस सींचि घनस्याम !
विहारी
बाला और बल्ली का कितना मनोहर रूपक है ! घनश्याम का
श्लिष्ट प्रयोग कैसा फबता है ! कुम्हलाई हुई लता पर ईषत् जल
पड़ने से वह जैसे लहलहा उठती है, वैसे ही विकल विरहिणी का
घनश्याम के दर्शन से सब दुःख दूर हो जायगा । सखी यह बात
नायक से कैसी मार्मिकता के साथ कहती है ! विहारीलाल का
विरह-निवेदन कितना समीचीन है !
बरुनी-बुधबर मैं गूदरी पलक दोऊ,
____ कोए राते बसन भगोहें मेष रखियाँ ;
बूडी जल ही मैं, दिन-जामिनि हूँ जागैं, भौंहें
धूम सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ ।
असुवा फटिक-माल, लाल डोरी-सेल्ही पैन्हि,
भई हैं अकेली तजि चेली संग-सखियाँ;
दीजिए दरस देव, कीजिए संजोगिनि, ये ,
जोगिाने वै बैठी हैं बियोगिनि की अखियाँ ।
वियोगिनी के नेत्रों (अखियाँ ) और योगिनी का अपर्व रूपक
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२१४
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