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देव और विहारी
६-प्रोषितपतिका
मुनत पथिक-मुँह माँह-निसि लुमैं चलै वहि ग्राम ;
बिन बूझे, बिन ही सुने जियत बिचारी बाम ।
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विहारी
"विहारीलाल ने अतिशयोक्ति की टाँग तोड़ दी है।" प्रोषित-
पतिका नायिका के विरह-श्वास के कारण माघ की निशा में
गाँव-भर में ग्रीष्म की लुएँ चलती हैं ! अत्युक्ति की पराकाष्ठा है।
एक के शरीर-संताप से गाँव-भर तपता है । बेचारे पथिक को भी
मुसीबत है । लूह के डर से वह बेचारा गाँव के बाहर ही बाहर होकर
निकला जा रहा है। रास्ते में उसे विरहिणी का पति मिलता है।
पथिक को अपने गाँव की ओर से आते देखकर वह उससे पूछता
है कि क्या उस गाँव से आ रहे हो । उत्तर में पथिक भी उस
गाँव का नाम लेकर कहता है कि उसमें माघ की रात में भी लुएँ
चलती हैं । बस पतिजी विना और पूछ-ताछ के समझ लेते हैं
कि मेरी स्त्री जीवित है। पथिक से यह आशा करनी भी दुराशा-
मात्र थी कि वह इनकी विरहिणी भार्या का पूरा पता दे सकेगा। फिर
पति अपनी पत्नी के बारे में एक अनजान से विशेष जिज्ञासा
करने में लज्जा से भी सकुचता होगा । ऐसी दशा में "बिन बुझे,
बिन ही सुने" का प्रयोग बहुत ही उत्तम है।
संजीवन-भाष्यकार ने इस दोहे का अर्थ करने में यह भाव दिख-
लाया है कि अनेक पथिक बैठे हुए आपस में बातें कर रहे थे कि
अमुक गाँव में आज कल लू चलती है। यही सुनकर पति ने
विरहिणी के जीवित होने का अनुमान कर लिया। बहुत-से पथिकों
का आपस में बातें करनी दोहे के शब्दों से स्पष्ट नहीं है । विहारी-
लाल सहज में ही "सुनि पथिकन मुँह माँह-निसि" पाठ रखकर
इस अर्थ को स्पष्ट कर सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। ।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२१६
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