विरह-वर्णन २२५ विज्ञ पाठक विचार सकते हैं, किस अर्थ में अधिक खींचा-तानी है। कंत-बिन बासर बसंत लागे अंतक-से, तीर-ऐसे त्रिबिध समीर लागे लहकन : सान-धरे सार-से चंदन, घनसार लागे, खंद लागे खरे, मृगमेद लागे महकन । फाँसी-से फुलेल लागे, गासी-से गुलाब, अरु __गाज अरगजा लागे, चोवा लागे चहकन; अंग-अंग आगि-ऐसे केसरि के नीर लागे, चीर लागे जरन अबीर लागे दहकन। देव देव के उपर्युक्त छंद का अर्थ करके उसका सौंदर्य नष्ट करना हमें अभीष्ट नहीं है। पाठक स्वयं देख सकते हैं कि यह प्रोषितपतिका नायिका का कैसा उस्कृष्ट उदाहरण है। ७-प्रवत्स्यत्पतिका रहिहैं चंचल प्रान ये कहि कौन के अगोट ? ललन चलन की चित धरी कल न पलन की ओट । विहारी कल न परति, कहूँ ललन चलन कह्यो, बिरह-दवा सों देह दहकै दहक-दहक ; लागी रहै हिलकी, हलक सूखी, हालै हियो, "देव" कहै गरो मरो आवत गहक-हक । दौरघ उसासें ले-लै ससिमुखी सिसकति, मुलुप, सलोनो 'लंक लहकै लहक-लहक ; मानत न बरज्यो, सुबारिज - नैनन । बारि को प्रबाह बह्यो आवत बहक-बहक ।
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