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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२२३

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२३० तुलना के आकारी गुण की फिर से स्वीकृति हुई। वर्षा का सुंदर, यथार्थ रूप जगत् के सामने एक बार फिर रक्खा गया। प्रकृति. की प्रसन्नता, पक्षियों का कलरव, संयोगी पुरुर्षों का प्रेमालाप सभी एक बार, अपने पूर्ण विकास के साथ, देवजी की कविता में मलक गए। देखिए- सुनिकै धुनि चातक-मोरन की चहुँ ओरन कोकिल-कूकनि सो , अनुराग-भरे हरि बागनि मैं साखे, रागति राग अचूकनि सों। "कवि देव" घटा उनई जु नई , बन-भूमि भई दल-दूकनि सों; रँगराती, हरी हहराती लता , झुकि जाती समीर के झूकनि सों। (३) विरहिणी नायिका विरह-ताप से व्याकुल होकर तड़प रही है। उसकी यह विकट दशा देखकर पत्थर भी पसीज उठता है ! पर नायक की कृपा नहीं हो रही है। चतुर सखी नायिका की इस भीषण दशा को यकायक और चुपचाप चलकर देखने के लिये नायक से कहती है । कहने का ढंग बड़ा ही मर्मस्पर्शी है- जो वाकै तन की दसा देख्यो चाहत आप , तौ बाल, नकु बिलोकिए चाल औचक, चुपचाप । एक ओर विरहिणी नायिका की ऐसी दुर्दशा देखने का प्रस्ताव है, तो दूसरी ओर इसी प्रकार-चुपचाप-झाँककर वह चित्र देखने का आग्रह है, जो नेत्रों का जन्म सफल करनेवाला है। एक और कृशांगी, विरह-विधुरा और म्लान सुंदरी का चित्र देखकर हृदय-सरिता सूखने लगती है, तो दूसरी ओर स्वस्थ, मधुर और विकसितयौवना नायिका की कंदुक-क्रीड़ा दृष्टिगत होते ही हृदयरोवर बहराने लगता है । एक सखी भीषण, बीहड़, दग्ध- प्राय वक का दृश्य दिखलाती है, तो दूसरी सुरस्य, लहलहाता नंदन:वन सामने लाकर खड़ा कर देती है । एक ओर ग्रांतु की धकारी कृति हैं, तो दूसरी ओर पावस का