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तुलना
से छंद में भर दिया है। लहलहाते हुए अंगोंवाली नायिका की, रंग-
महल के आँगन में, ऐसी मनोहर कंदुक-क्रीड़ा झरोखे से झाँककर
देखने के लिये बार-बार नहीं मिल सकती है। तभी तो कवि कहता
है-"श्रावो प्रोट रावटी, झरोखा झाँकि देखौ 'देव' ; देखिबे को
दाँव फेरि दूजे द्यौस नाहिने।"
(४) कर के मीड़े कुसुम-लौं गई बिरह कुँमिलाय 3;
सदा समीपिन सखिन हूँ नीठि पिछानी जाय।
विहारी
इस पत्र में विरहिणी नायिका की समता हाथ से मसले हुए फूल
से देकर कवि ने अपनी प्रतिभा-शक्ति का अच्छा नमूना दिखाया है।
, नायिका की विवर्णता, कृशता, निर्बलता एवं श्री-हीनता का प्रत्यक्ष
"कर के मोड़े कुसुम-लौं" शब्द-समूह से भली भाँति हो जाता है;
मानो "ौचुक, चुपचाप” ले जाकर यही हृदय-द्रावी चित्र दिखलाने
का प्रस्ताव सखी ने पिछले दोहे में किया था, क्योंकि वहाँ तो सखी
ने केवल इतना ही कहा था-"जो वाके तन की दसा देख्यो
चाहत प्राप।" विहारी के इस चित्र को देखकर संभव है, पाठक
अधीर हो उठे हो। अतः पहले के समान पुनः देव का एक छंद
उद्धृत किया जाता है। इसमें दूसरे ही प्रकार का चित्र खचित है।
मर-भूमि से निकलकर शस्य-श्यामला भूमि-खंड पर दृष्टि पड़ने में
जो आनंद है-प्यास से मरते हुए को अत्यंत शीतल जल मिल
जाने में जो सुख है, वही दोहा पढ़ चुकने के बाद इस छंद के
पाठक को है-
लागत समीर लंक लहकै समूल अंग,
फूल से दुकूलनि सुगंध बिथुरो परै ;
इंदु-सो बदन, मंद हाँसी सुधा-बिंदु, . .
बिंद ज्यों मुदित मकरंदनि मुरयो परै ।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२२५
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