२३४ देव और विहारी ललित लिलार, रंग-महल के आँगन के मग मै धरत पग जावक घुरयो परै : "देव" मनि-नूपुर-पदुम-पदहू पर है भूपर अनूप रंग-रूप निचुरयो परै। देव एक ओर मसलकर मुरझाया हुश्रा कोई फूल है ; दूसरी ओर मकरंद-परिपूरित, मुदित अरविंद है। एक में सुगंध का पता नहीं ; पर दूसरे में सुगंध 'बिथुरी' पड़ती है। एक का पहचानना भी कठिन है, परंतु दूसरे का 'अनूप रंग-रूप निचुड़ा पड़ता है । एक दूसरे में महान् अंतर है । एक 'निदाघ' के चक्कर में पड़कर नष्टप्राय हो गया है, तो दूसरा शरद्-सुखमा में फूला नहीं समाता ।। एक ओर विहारी का विरह है, तो दूसरी ओर देव की दया (५) स्याम-सुरति करि राधिका तकति तरनिजा-तीर; अँसुवन करति तरोस को खिनक खरौहीं नीर । विहारी । आजु गई हुती कुंजनि लौं, बरसैं उत बूँद घने घन घोरत "देव" कहै-हरि भीजत देखि अचानक आय गए चित चोरत ।' धोटि भट्ट, तट पोट कुटी के लपेटि पटी सों, कटी-पट छोरत ; चौगुनो रंगु चढ़यो चित मैं, चुनरी के चुचात, लला के निचोरत ।' इन दोनों पद्यों का भाव-वैषम्य स्पष्ट है । कहाँ तो कालिंदी-कूल पर पूर्व केलि का स्मरण हो पाने से नायिका का अश्रु-प्रवाह और कहाँ घोर जल-वृष्टि के अवसर पर उसे भीगती देखकर नायक का कंज में बचाने धाना! एक ओर अंधकारमय, दुःखद वियोग और इससी मोर प्रशा-पूर्ण, सुखद संयोम । एक ओर नायकों के अश्रु-
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