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देव और विहारी
ललित लिलार, रंग-महल के आँगन के
मग मै धरत पग जावक घुरयो परै :
"देव" मनि-नूपुर-पदुम-पदहू पर है
भूपर अनूप रंग-रूप निचुरयो परै।
देव
एक ओर मसलकर मुरझाया हुश्रा कोई फूल है ; दूसरी ओर
मकरंद-परिपूरित, मुदित अरविंद है। एक में सुगंध का पता नहीं ;
पर दूसरे में सुगंध 'बिथुरी' पड़ती है। एक का पहचानना भी कठिन
है, परंतु दूसरे का 'अनूप रंग-रूप निचुड़ा पड़ता है । एक दूसरे में
महान् अंतर है । एक 'निदाघ' के चक्कर में पड़कर नष्टप्राय
हो गया है, तो दूसरा शरद्-सुखमा में फूला नहीं समाता ।।
एक ओर विहारी का विरह है, तो दूसरी ओर देव की दया
(५) स्याम-सुरति करि राधिका तकति तरनिजा-तीर;
अँसुवन करति तरोस को खिनक खरौहीं नीर ।
विहारी ।
आजु गई हुती कुंजनि लौं, बरसैं उत बूँद घने घन घोरत
"देव" कहै-हरि भीजत देखि अचानक आय गए चित चोरत ।'
धोटि भट्ट, तट पोट कुटी के लपेटि पटी सों, कटी-पट छोरत ;
चौगुनो रंगु चढ़यो चित मैं, चुनरी के चुचात, लला के निचोरत ।'
इन दोनों पद्यों का भाव-वैषम्य स्पष्ट है । कहाँ तो कालिंदी-कूल
पर पूर्व केलि का स्मरण हो पाने से नायिका का अश्रु-प्रवाह और
कहाँ घोर जल-वृष्टि के अवसर पर उसे भीगती देखकर नायक का
कंज में बचाने धाना! एक ओर अंधकारमय, दुःखद वियोग और
इससी मोर प्रशा-पूर्ण, सुखद संयोम । एक ओर नायकों के अश्रु-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२२६
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