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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२४०

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देव और विहारी मधुर है, इसके साक्षी सहृदय सजनों के श्रवण हैं। आइए पाठक, आपके सामने दोनों कविवरों को कुछ सुधा-सूक्तियाँ उपस्थित की जाती हैं । कृपा करके आस्वादनानंतर बतलाइए कि किसमें मिठाई और सरसता की अधिकता है- १-विहारी है कपूर-मनिमय रही मिलि तन-दुति मुकतालि ; छन-छन खरी बिचच्छनौ लखति काय तृन आलि । ले चुभकी चलि जात तित, जित जल-केलि अधीर; कीजत केसर-नीर सों तित-तित केसर-नीर । मरिबे को साहस कियो, बढ़ी बिरह की पीर ; दौरति है समुहे ससी, सरसिज, सुरभि, समीर । किती न गोकुल कुल-बधू ? काहि न को सिख दीन ? कौने ती न कुल-गली, है मुरली-मुरलीन ? अरी ! खरी सटपट परी बिधु आधे मग हेरि ; सग लगे मधुपन, लई भागन गली अंधेरि । विहारीलाल के ऊपर उद्धत पद्य-पंचक में जैसे प्रतिभा का प्रकाश प्रकट है, वैसे ही शब्द पीयूष-प्रवाह भी पूर्णता प्राप्त कर रहा है। प्रथम दोहे में "मनिमय, मिलि, मुकतालि" एवं “छन-छन, बिच-, च्छनी, छाय" में अपूर्व शब्द-चमत्कार है। उसी प्रकार दूसरे दोहे के प्रथमांश में "चुभकी चलि", "जात तित, जित जल-कलि" में अनुप्रास का उत्तम शासन सुदृढ़ करके मानो द्वितीयांश में कविवर ने "कीजत केसर-नीर सों तित-तित केसर-नीर"-सदृश अनुप्रासयुक्र चाक्य द्वारा शब्द-समृद्धि लूट ली है। तीसरे दोहे में "समुहे ससी, सरसिज, सुरभि, समीर" शब्दों का सन्निवेश सुंदर, सरस, समु- चित और सफलता पूर्ण है । ऐसा शब्द-चमत्कार निर्जीव तुकबंदी में जान डाल देता है; रसात्मक वाक्य की तो बात ही निराली है।