पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२४२

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२५० देव और विहारी की हिम्मत नहीं पड़ती, पर क्या शर्माजी सहृदयतापूर्वक "छन- छन बिचच्छनौ काय" को "मन मैं लाय" कह सकते हैं कि ऊपर दिया हुआ छंद "खाँड़ की रोटी" का ईषत् भी स्वादु उत्पन्न नहीं करता है ? क्या कोमल-कांत-पदावली, सुकुमारता, माधुर्य एवं प्रसाद का आह्लाद निर्विवाद यह सिद्ध नहीं करता है कि जिसको कोई 'निबौरी' समझे हुए थे, वह यदि विदेशी 'अंगूर' नहीं ठहरता है, तो ब्रजभाषा का 'दाख' निश्चय है। कहते हैं, किसी स्थल विशेष पर एक महात्मा की कृपा से कुस्वादु रीठे मीठे हो गए थे। सो यदि देवजी ने 'कटुक निंबौरी' में दाख की साख ला दी हो, तो आश्चर्य ही क्या ! एक बार मधुरिमा का अनुभव कर चुकने के बाद निडर स्वाद लेते चलिए। कम-से-कम मुख का स्वाद न. बिगड़ने पाएगा- आपुस म रस मै रहसै, बहसैं, बनि राधिका कुंज-बिहारी; स्यामा सराहत स्याम की पागहि, स्याम सराहत स्यामा कि सारी । एकहि आरसी देखि कहै तिय, नीको लगो पिय, प्यो कहै, प्यारी3B "देव" सु बालम-बाल को बाद बिलोकि भई बलि हौं बलिहारी । इम भी कवि की रचना-चातुरी पर 'बलिहारी' कहते हुए छंद की मधुरिमा तथा शब्द-गुरु-गरिमा का अन्वेषण-भार सहृदय पाठकों की रुचि पर छोड़ते हैं । जौहरी की दुकान का एक दूसरा रत्न परखिए-. __ कोऊ कहाँ कुलटा, कुलीन, अकुलीन कहौ, कोऊ कहौ रांकनि, कलंकिनि, कुनारी हो। कैसो नरलोक, परलोक बरलोकनि मैं ? लीन्हीं मैं अलीक लोक-लीकन ते न्यारी हौं । तन जाउ, मन जाउ, "देव" गुरु-जन जाउ, प्रान किन जाउ, टेक टरत न टारी हौं ।