भाषा
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बूंदाबनवारी बनवारी की मुकुट-वारी,
पीत पटवारी वहि मूरति पै वारी हो।'
संभव है, उपर्युक्त पद्य-पीयूष भी भिन्न रुचि के भाषाभिमानियों की
तृषा निवारण न कर सके। अतः एक छंद और उद्धृत किया जाता है-
पॉयन नूपुर मजु बज, कटि-किंकिनि मैं धुनि की मधुराई ।
साँवरे-अग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल मुहाई।
माथे किरीट, बड़े रंग चंचल, मंद हँसी, मुख-चंद जुन्हाई ;
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रज-दूलह देव-सहाई ।
उपर्युक्त उदाहरणों के चुनने में इस बात का किंचित् विचार नहीं
किया गया है कि उनमें केवल अनुप्रास ही अनुप्रास भरा हो, क्योंकि
भाषा-माधुर्य के लिये अनुप्रास कोई प्रावश्यक वस्तु नहीं है । हाँ,
सहायक अवश्य है । कविवर देवजी अनुप्रास अपनाने में भी अपूर्व
कौशल दिखलाते हैं और सबसे प्रशंसनीय बात तो यह है कि इस
हस्त-लाघव में न तो उन्हें व्यर्थ के शब्द भरने की आवश्यकता
पड़ती है और न शब्दों के रूप ही विकृत होने पाते हैं। इस प्रकार
का एक उदाहरण उपस्थित किया जाता है-
जोतिन के जूहनि दुरासद, दुरूहनि,
प्रकास के समूहनि, उजासनि के आकरनि
फटिक अटूटनि, महारजत-कूटनि,
मुकुत-मनि-जूटनि समेटि रतनाकरनि ।
कुटि रही जोन्ह जग लूटि दुति "देव"
कमलाकरनि भूटि,टि दीपति दिवाकरनि
नभ-सुधासिंधु-गोद पूरन प्रमोद ससि
समोद-बिनोद चहुँ कोद कुमुदाकरनि ।
प्रतिभा-पूर्ण पद्य के लिये जिस प्रकार अर्थ-निर्वाह, सुष्टु योजना,
माधर्य एवं प्रौचित्य परमावश्यक हैं, उसी प्रकार पुनरुकि-दोष-परि-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२४३
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