परिशिष्ट २६१ हो गई । इस छंद में गौण रूप से समता, प्रसाद एवं सुकुमारता- गुण आए हैं, परंतु उनमें अर्थ-व्यक्त का प्राधान्य है। छंद में कैशिकी वृत्ति और नागर नायिका हैं, क्योंकि उसने ज़रा-सा गात छुए जाने से सखी के संकोच-वश लज्जा-जनित क्रोध किया और नायक के उठ जाने से थोड़े-से अनरस पर ऐसा शोक किया कि रात-भर रोदन, हाय-हाय, पछताना, आँसुओं का बाहुल्य श्रादि जारी रक्खा । एतावता छंद-भर में नागरत्व का प्राधान्य है, सो ग्रामीणता-सूचक रस में अनरस होते हुए भी नायिका नागर है। छंद में दो स्थानों पर उपमालंकार आया है, जिसका चमत्कार अन्यत्र नहीं देख पड़ता । इससे यहाँ एकदेशोपमा समझनी चाहिए। यहाँ विषादन और उल्लास का आभास है, परंतु वह दृढ़ नहीं होते। 'को जानै री बीर बिन बिरही विरह-बिथा' में लोकोक्ति- अलंकार है और कुछ गात छुए जाने से रिसाने के कारण स्वभावोक्ति प्राती है। यह नहीं प्रकट होता कि नायक ने कोई लज्जा का अंग छुआ, परंतु फिर भी नायिका क्रुद्ध हुई । सुतरां अपूर्ण कारण से पूर्ण काज हो गया, जिससे दूसरा विभावना-अलंकार हुआ । नायक उत्तम है, क्योंकि वह नायिका के क्रोध से मुसकराता ही रहा। नायिका मध्यमा है। नायिका पहले सिसकी, फिर रोई, फिर उसने हाय-हाय किया और अंत में उसके आँसू बहने लगे। इसमें उत्त- रोत्तर शोक-वृद्धि से सारालंकार पाया । नायिका के क्रोध से नायक में सुंदर भाव हुआ, सो अकारण से कारज की उत्पत्ति होने के कारण चतुर्थ विभावना-अलंकार निकला । नायक के हँसकर गात छूने से नायिका हँसने के स्थान पर क्रोधित हुई, अर्थात् कारण से विरुद्ध काज उत्पन्न हुआ, सो पंचम विभावना-श्रलंकार पाया। "अलंकार यक और में जहँ अनेक दरसाहि, अभिप्राय कवि को जहाँ,
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