२६२ देव और विहारी सो प्रधान तिन माहि ।" इस विचार से छंद में उपमा का प्राधान्य है। सखी के मुख से मृगलोचनि एवं बड़े-बड़े नैन कहे गए, जिससे सखी-मुख-गर्व प्रकट है । वाचक प्राधान्य से यहाँ प्राचीन मत से उत्तम काव्य है। कुल मिलाकर छंद बहुत अच्छा है । इसमें दोष बहुत कम और सद्गुण अनेक हैं। [मिश्र-बंधु-विनोद] २-पाठांतर पर विचार मिश्र-बंधु-विनोद से लेकर जिस छंद की व्याख्या परिशिष्ट नं. १ में दी गई है, उस छंद के अंतिम पद में जो शब्दावली है, वह इस प्रकार है- "बड़े-बड़े नैनन सों ऑसू भरि-भरि दरि, गोरो-गोरो मुख बाजु ओरो-सो बिलानो जात ।" पाठांतर रूप में यह पद इस प्रकार भी मिलता है- "बड़े-बड़े नैननि सों आँसू भरि-भरि ढरि, गोरे मुख परि अाजु ओरे लौ बिलाने जात ।" एक समालोचक का आग्रह है कि दूसरा पाठ ही समीचीन है और पहला त्याज्य । पहले में श्रोले की उपमा मुख से तथा दूसरे में आँसुओ से दी गई है । आँसू कपोलों पर गिर रहे हैं। कपोल विरह-ताप के कारण उत्तप्त हैं; सो उन पर आँसू पड़ते और सूख जाते हैं । यह सब ठीक, पर द्रव आँसुओं और दृढ़ ओलों का साम्य ठीक नहीं बैठता। रंग का साम्य भी विचारणीय है। फिर नायिका का दुःख क्षण-क्षण पर उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, यह भाव आँसू और श्रोले की उपमा से प्रकट ही नहीं होता। यदि भव- प्रवाह ज्यों-का-त्यों जारी है, तो इससे अधिक-से-अधिक यही सूचित
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