परिशिष्ट २६६ संसार को उस समय कविवर श्रीधर का अभिमान था एवं प्रेमानंद भट्ट द्वारा गुजराती-साहित्य का शृंगार, अनोखे ढंग से, हो रहा था | हिंदी-भाषा के गौरव स्वरूप सुखदेव, कालिदास, वृंद, उदयनाथ एवं लाल कवि की पीयूषवर्षिणी वाणी की प्रतिध्वनि चारों ओर गूंज रही थी। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि अपने समय में ही देवजी को कवि-मंडली एवं विद्वरसमाज ने भली भाँति सम्मानित किया था। देवजी का रस-विलास सं० १७८४ में बना । सं० १७६२ में दलपतराय वंशीधर ने उदयपुर-नरेश महाराणा जगतसिंह के लिये अलंकार-रत्नाकर-नामक ग्रंथ बनाया । इस ग्रंथ में देवजी के अनेकानेक उत्तम छंदों को सादर स्थान मिला है । कविवर भिखारीदास ने संवत् १८०३ में अपना सुप्रसिद्ध काव्य-निर्णय ग्रंथ रचा । इसमें एक छंद द्वारा उन्होंने कतिपय कवियों की भाषा को प्रादर्श भाषा मानने की सलाह दी है। इस छंद में भी देवजी का नाम आदर के साथ लिया गया है। प्रवीण कवि के सार-संग्रह ग्रंथ में देवजी के बहुत-से छंद मौजूद हैं। संवत् १८१४में सूदनजी ने सुजान-चरित्र ग्रंथ की रचना की थी। इसमें उन्होंने ७५ कवियों को प्रणाम किया। इस कवि-नामावली में भी देवजी का नाम है । संवत् १६२६ के लगभग सुकवि देवकीनंदनजी ने कविता करनी प्रारंभ की । इनकी कविता में देव की कविता की झलक मौजूद है । बस, इसी बात को लेकर लोग यह कहने लगे कि 'देव मरे, भए देवकीनंदन,। संवत १८३६ से १८७६ तक के बांधा, बेनीप्रवीण, पद्माकर तथा अन्य कई प्रसिद्ध कवियों की कविता पढ़ने से स्पष्ट प्रकट होता है कि उपर्युक्त कवियों ने भाषा, भाव तथा वर्णन-शैली में देवजी का बहुत कुछ अनुकरण किया है। संवत् १८८७ में रचित
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