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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२६२

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२७० देव और विहारी अपने काव्य-विलास ग्रंथ में सुकवि प्रतापसाहि ने सतकाव्य के उदाहरण में देवजी के बहुत-से छंद रक्खे हैं। बाद के सभी अंग्रह-ग्रंथों में देव के छंदों का समावेश हुआ है। सरदार ने भंगार-संग्रह में, भारतेंदुजी ने 'सुंदरी-तिलक' में एवं गोकुलप्रसाद ने 'दिग्विजै-भूषण' में देवजी के छंदों को भली भाँति अपनाया है। नवीन कवि का संग्रह बहुत प्राचीन नहीं, परंतु इसमें भी देवजी के छंदों की छाप लगी हुई है । पाठकगण इस ऐतिहासिक सिंहावलोकन से देखेंगे कि देवजी का सत्कवियों में सदए से श्रादर रहा है। इधर संवत् १६०० के बाद से तो उनका यश अधिकाधिक विस्तृत होता जाता है। धीरे-धीरे उनकी कविता के अनुरागियों की संख्या बढ़ रही है। भारतेंदुजी ने सुंदरी-सिंदूर ग्रंथ की रचना करके उनकी ख्याति बहुत कुछ बढ़ा दी है। वह देवजी को कवियों का बादशाह कहा करते थे, और सुंदरी-सिंदूर के आवरण. पृष्ठ पर उन्हें 'कवि-शिरोमणि' लिखा भी है। स्वर्गीय चौधरी बदरीनारायणजी इस बात के साक्षी थे। अयोध्याप्रसादजी वाजपेयी, सेवक, गोकुल, द्विज बलदेव तथा ब्रजराजजी की राय भी वही थी, जो भारतेंदुजी की थी। एक बार सुकवि सेवक के एक छंद में काम की बेटी' ये शब्द आ गए थे, जिन पर उस समय की कवि-मंडली ने आपत्ति की । उसी बीच में हमारे पितृव्य स्वर्गवासी ब्रजराजजी की सेवक से भेंट हुई । सेवकजी ने अपने बूढ़े मुँह से हमारे चचा को वह छंद सुनाया और कहा कि देखो भइया, लोग हमारे इन शब्दों पर आपत्ति करते हैं। इस पर हमारे पितृव्य ने कहा कि यह आक्षेप व्यर्थ है । देवजी ने भी "काम की कुमारी-मी परम सुकुमारी यह” इत्यादि कहा है। सेवकजी यह सुनकर गद्गद हो गए। उन्होंने कहा कि यदि देव ने ऐसा वर्णन किया है, तो मैं अब किसी प्रकार के प्राक्षेपों की परवा न करूँगा,