परिशिष्ट न था और इसी प्रकार 'नूतन' के 'न' को हटाकर 'नूत' रखना भी अनुचित हुआ है । प्राकृत में 'किंशुक' को 'किसुन' कहते हैं। हिंदी में शब्दांत में स्वर प्रायः मंजन के साथ रहता है, अलग नहीं। सो यदि किंयुन' के 'अ' को हिंदी ने अस्वीकार किया और 'किंसु रूप मान लिया, तो श्राश्चर्य की कोई बात नहीं हुई । इसी 'किंसु से 'केस' रूप भी बना है और ब्रजभाषा-कविता में प्रचलित है। संस्कृत में 'नूतन' और 'नून' ये दो शब्द हैं । हिंदी में ये दोनों शब्द क्रम से नूतन और नूत रूप में व्यवहृत होते हैं। "अरुन, नृत पल्लव धरे रंग-भीजी ग्वालिनी" और "दूत विधि नूत कबहूँ न उर भानहीं", इन दो पद्यांशों में क्रम से सूरदास और केशवदास ने 'नूत' शब्द का प्रयोग किया है। छंद में खपाने के लिये यदि किसी शब्द का कोई अक्षर कवि छोड़ दे, तो छंदःशास्त्र के नियमों के अनुसार उसका यह काम क्षम्य है । यदि देवजी पर भी ऐसा कोई अभियोग प्रमाणित हो जाय, तो उनको भी कदाचित् क्षमा प्राप्त करने में देर न लगे । सूरदासजी ने 'खंजन' के लिये खंज (आलिंगन दे, अधर-पान के खंजन खंज लरे) और विद्युत् के लिये विद्यु का व्यवहार किया है । कविवर विहारीलाल ने एक अक्षर की कौन कहे, दो अक्षर छोड़कर 'धनसार' के लिये केवल 'घन' शब्द का प्रयोग किया है (भजत भार भयभीत ह. धन चंदन बनमाल)। (३) देवजी ने 'वंशी को 'बाँसी' लिखा है । इस पर आक्षेप है कि उन्होंने शब्द को बेतरह बिगाड़ दिया है । 'वंशी' शब्द 'वंश' से बना है। 'वंश' को हिंदी में 'बाँस कहते हैं । 'बाँस' से 'बाँसी' का बनना बहुत-से लोगों को कदाचित् नितांत स्वाभाविक जचे । सरदास को 'बाँसी' में कोई विचित्रता न समझ पड़ी होगी, इसीलिये उन्होंने लिखा है- Janata Mazab. 44x
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