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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२६८

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देव और विहारी आए ऊधी, फिरि गए आँगन, डारि गए गर फाँसी ; केसरि को तिलक, मोतिन की माला, बृदाबन की बॉसी। (४) देवजी के एक छंद में चारों तुकों में क्रम से घहरिया, छह- रिया, थहरिया और लहरिया शब्दों का प्रयोग हुश्रा है। इस पर 'आक्षेप यह है कि देवजी ने लहरिया के तुकांत के लिये घहरिया, छहरिया और थहरिया बना डाले हैं। इस संबंध में हमें इतना ही कहना है कि यदि देवजी ने ऐसा किया है, तो उसका उत्तरदायित्व उन पर न होकर उनके पूर्ववर्ती कवियों पर है । सूर और तुलसी ने जो मार्ग प्रशस्त कर दिया था, देवजी ने उसका अनुगमनमात्र किया है। सूरदास ने 'नागरिया' के तुकांत के लिये धरिया, भरिया, जरिया, करिया और दुलरिया शब्दों का प्रयोग किया है ( नवल किशोर, नवल नागरिया-सूरसागर) तथा तुलसीदास ने मा- रिया, भरिया, करिया आदि शब्द लिखे हैं। (५) देवजी की कविता में व्याकरण के अनौचित्य भी बहुत से स्थापित किए गए हैं । निम्नलिखित छंद के संबंध में समालोचक का मत है कि उसमें पूर्ण रीति से व्याकरण की अवहेलना की गई है- माधुरी-भौरनि, फूलनि-भौरनि, बौरनि-बौर न बेलि बची है : केसरि, किसु, कुसुंभ, कुरौ, किरवार, कनरनि-रंग रची है। फूले अनारनि. चंपक-डारनि, लै कचनारनि नेह-तची है; कोकिल-रागनि, नूत परागनि, देखु री बागनि फागु मर्चा है। यद्यपि श्राक्षेप इस बात का है कि व्याकरण की अवहेलना की गई है, पर हमें तो यह छंद बिलकुल शुद्ध दिखलाई देता है। इसी फाग की बचत औरों की बौरनि (बौर निकलने की क्रिया) से कोई भी बेलि नहीं बची है-सभी में बौर आ गया है। इसी फाग की शोभा किरवार और कनर से हो रही है। यही फाग कचनार के स्नेह में विकल हो रही है। कवि कोकिला की वाणी सुनता पार PLAMPywU M4AINA