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देव और विहारी
पाता है। ऐसी दशा में हम विहारी की भाषा की अपेक्षा देव की
भाषा को अच्छा मानने को विवश हैं।
देवजी की अच्छी भाषा का एक नमूना लीजिए-
धान मैं धाय धंसी निरधार है, जाय फँसी, उकसी न अंधेरी;
अगराय गिरी गहिरी, गहि फेरे फिरी न घिरौं नहिं घेरी।
'"देव" कळू अपनो बसु ना, रस-लालच खाल चितै भई चेरी;
बेगि ही बूड़ि गई पॅखियाँ, अँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी ।
भाषा का एक यह भी बड़ा भारी गुण है कि वह प्रचलित
महावरों एवं लोकोक्तियो को स्वाभाविक रीति से दृढ़ करती रहे।
देवजी ने अपनी रचनाओं में इस बात का भी विचार रक्खा है-
को न भयो दिन चारि नयो नवजोबन-जोतिहिं जात समाते ;
पै अब मेरी हितू, मैं बूझै को, होत पुर।नेन शो हित हाते,
देखिए "देव" नए नित भाग, सुहाग नए ते भए मद-माते,
नाह नए औ नई दुलही, भए नेह नए आ नए-नए नाते !
सुंदर भाषा का एक नमूना और लीजिए-
हौं भई दूलह, वै दुलही, उलही सुख-बेलि-सी केलि घनेरी ;
मैं पहिरो पिय को पियरो, पहिरी उन री चुनरी चुनि मेरी ;
"देव" कहा कहौ, कौन सुनेरी, कहा कहे होत, कथा बहुतेरी;
जे हरि मेरी धरै पग-जेहार ते हरि चेरी के रंग रचरी।
उपर्युक्त छंद में एक भी मीलित वर्ण नहीं है। टवर्ग का कोई
अक्षर कहीं ढूंढन से भी नहीं मिलता । कोई तोड़ा-मरोड़ा शब्द
नहीं है। केवल दो-दो और तीन-तीन अक्षरों से बने शब्द सानुप्रास
प्रशस्त मार्ग पर, स्वाभाविक रीति से, जीते-जागते चलते-फिरते
दिखलाई देते हैं।
प्रसंग इस बात की अपेक्षा करता है कि यहाँ पर देवजी
की दो-चार उत्तम उक्लियों से भी पाठकों का परिचय करा दिया
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२७२
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